•बिहार पड़ाव – छठवाँ दिन•
दिनाँक 12 अक्टूबर को जत्था सपही गाँव से आगे की ओर प्रस्थान किया। यह जत्था आपसी प्रेम, शांति और सौहार्द्र का उत्सव है, जो दुनिया में व्याप्त नफरत, अविश्वास की भावना के जवाब में हम संस्कृतिकर्मियों और ज़िम्मेदार नागरिकों की एक ज़रूरी पहल है। यह यात्रा इस समर्पण के साथ क्षेत्र के लोगों से मिल रही है, वहाँ की आर्थिक स्थिति, लोगों की रोज़ की समस्याएँ, आपसी भाईचारे आदि पर उनसे विचारों का आदान-प्रदान कर रही है। ग्रामीण व पिछड़े इलाके में रहते हुए भी लोग दुनिया में हो रहे युद्धों को लेकर भी चिंतित हैं। कुछ पढ़े-लिखे बेरोज़गार युवाओं से बात करने पर वे बताते हैं कि चंद मजबूत और ताकतवर देश कमज़ोर देशों को समाप्त कर देना चाहते हैं।चारों ओर युद्ध की विभीषिका से दुनिया त्रस्त है। इजराइल द्वारा जिस तरह गाजा पट्टी पर हमले कर फिलीस्तीनी लोगों को खत्म करने की कोशिश की जा रही है, वह नितांत चिंताजनक है। हम आप लोगों के जत्थे के उद्देश्यों के साथ खड़े हैं। हम सब भी युद्ध और हिंसा की दुनिया नहीं चाहते। हम युवा हैं लेकिन हमारे सपनों को कुचला जा रहा है। रोज़गार, नौकरी नहीं है। पढ़-लिखकर भी यूँ ही छोटे-छोटे काम करके किसी तरह सिर्फ साँस भर ले पा रहे हैं।
सपही से जत्था निकलने से पहले वहाँ के निवासी शंभु सहनी ने कहा कि सपही बाजार में जहाँ रात में जत्थे ने अपने गीत-संगीत का कार्यक्रम किया था, वहाँ एक कुआँ है, जिसका पानी ज़हरीला था। पुरखे कहते हैं कि जब अंग्रेज़ उधर से गुज़रते थे और पानी माँगते थे तो गाँव के लोग उसी कुएँ का पानी उन्हें देते थे। उस पानी को पीने के बाद बचने की संभावना नहीं रहती थी। इस तरह हमारे पूर्वज हर तरीके से अपना विरोध प्रकट कर रहे थे। सामने से लड़कर भी, साथ ही साथ जैसे भी मौका मिले। आज भी वह कुआँ मौजूद है। शंभु सहनी का कहना है कि इस कुएँ को ‘तितहवा इनार’ कहते हैं। उन्होंने एक गीत के द्वारा इसे बताया,
“मत मुअ मत माहुर खा
मरे के होखे तो सपही जा”
यह हमारे पूर्वज बताते थे। यह विश्वास आज भी इस इलाके में मौजूद है। आज भी सपही विकास की बाट जोह रहा है। काफी सरकारी लूट है। गरीबों की संख्या बहुत अधिक है। धार्मिक कर्मकांड बहुत ज़्यादा है। शिक्षा का स्तर बहुत ख़राब है। दिखाने के लिए विकास है मगर बहुत कम लोगों तक उसकी पहुँच है। यहाँ भी अंग्रेज़ नील की खेती कराते थे और रैयत का शोषण-दमन भी करते थे।
12 अक्टूबर को जत्थे का पहला पड़ाव था सपही वेरेतिया (वॉर्ड नं. 5)। वहाँ के चौक पर जत्थे के उद्देश्य पर ग्रामीणों से चर्चा की गई। जत्थे के सभी साथियों ने मिलकर हिमांशु के नेतृत्व में गीत गाया, ‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आए हैं’। उसके बाद दूसरा गीत था, ‘गंगा की कसम, यमुना की कसम, ये ताना बाना बदलेगा, तू खुद को बदल, तू खुद को बदल, तब तो ये ज़माना बदलेगा।’
आगे जत्था बनारसी चौक (चैलहाँ) जाकर रूका। वहाँ दोपहर के भोजन के बाद जत्था आगे बढ़ा। अरविंद कुमार सिंह (अजगरी) तथा कुमार मनोज सिंह (पचरुखा पश्चिमी का मुखलिसपुर) जत्थे का नेतृत्व कर रहे थे। अरविंद जी पूर्व मुखिया रहे हैं। उन्होंने बहुत सम्मान के साथ जत्थे का स्वागत किया एवं रास्ते भर परिचय कराते हुए पदयात्रा को खुशगवार बनाए रखा।
यहाँ से जत्था रवाना होकर बतख मियाँ की मज़ार पर पहुँचा। मस्जिद की बगल में मज़ार है। बतख मियाँ के बारे में बताया गया कि जब गांधी जी मोतिहारी आए थे, उन्हें अंग्रेज़ों द्वारा दूध में ज़हर देकर मारने का षड्यंत्र रचा गया था। यह बात बतख मियाँ ने सुन ली। सुनकर पहले तो वे जार-जार रोए, मगर उसके बाद उन्होंने जाकर गांधी जी को यह बात बताई और दूध पीने से मना कर दिया। गांधी जी ने उपवास की बात कहकर दूध पीना टाल दिया और उनकी जान बच गई। अगर गांधी नहीं बचते तो स्वतंत्रता नहीं मिलती, क्षेत्र में अभी भी यह विश्वास दृढ़ है। इस घटना के अनेक प्रकार के विवरण लोगों द्वारा सुनाए जाते हैं। जत्थे के साथियों ने इन बातों को कई जगह रिकॉर्ड किया है।
वहाँ मो. हाजी हुसैन अंसारी साहब काजी तथा मौलाना सलाउद्दीन रिज़वी इमाम साहब से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि बतख मियाँ के चिन्हों को मिटाने की हरचंद कोशिश की जा रही है। बतख मियाँ के पोते हैदर अंसारी आज भी गाँव में रहते हैं। उनके पास ज़मीन तक नहीं है। उनका बेटा साबिर अली विकलांग है। नवाज़न खातून उनकी पत्नी है। यह परिवार बतख मियाँ के भाई का है। उनका अब कोई परिवार नहीं है। लोगों ने बताया कि अब यहाँ से बतख मियाँ की यादों को भी मिटाया जा रहा है। कई जगहों से शिलापट हटा दिये गये हैं। अजगड़ी गाँव के लोगों ने आज भी गांधी जी और बतख मियाँ अंसारी की यादों को उसी तरह सँजोकर रखा है। लोकस्मृतियों में ही पूरा इतिहास सुरक्षित है। आज भी कुछ बुजुर्ग कहते हुए मिले कि हमारे नेता आज भी गांधी जी ही हैं। कुछ लोग गांधी जी और बतख मियाँ के सपनों का भारत बनाने में हमेशा अड़चन पैदा करते रहे हैं। हमारा देश अनेक संस्कृतियों, जातियों का मजमुआ है। उसे हम किसी भी कीमत पर नष्ट नहीं होने देंगे। यह देश सबको जीने का एकसमान अधिकार दे, इसी के लिए हम सबको मिलकर लड़ना है। यह गाँव पूरी तरह मुस्लिम बहुल गाँव है। जिस तरह से वह पूरे राष्ट्रीय आंदोलन से उपजी एकता को बचाने के लिए कृतसंकल्प है, उससे सभी को सबक लेना चाहिए।
फिर जत्था सिसवा पहुँचा। रास्ते में बाजार मिला, वहाँ लोगों से सम्पर्क करते हुए जत्था आगे बढ़ता गया। रात उतर रही थी। लोग धीरे-धीरे गाते-बजाते रात्रि विश्राम की जगह सिसवा पहुँचे। यहाँ के पंचायत भवन में रुकने की व्यवस्था की गई थी। सिसवा में पूर्व विधायक रामाश्रय प्रसाद सिंह, अमीरुल हुदा, ज़फीर आज़ाद चमन, जो मंजरिया प्रखण्ड के प्रमुख हैं, आदि ने अपने अन्य साथियों के साथ पूरे जत्थे का इस्तकबाल किया। थोड़ी देर रुककर, सामान वगैरह रखने के बाद जत्था लगभग साढ़े सात बजे कपहरिया टोला सिसवा चौक पर पहुँचा। यहाँ पहले से ही लोग इकट्ठे थे। जत्थे के आगमन की सूचना उन्हें पहले से ही थी। बहुत उत्साहवर्द्धक माहौल था। यह भी मुस्लिमबहुल क्षेत्र है। यहाँ भी आपसी एकता देखते बनती थी।
कार्यक्रम की शुरुआत ‘जोगीरा’ से हुई। पीयूष के शुरुआत करते ही पूरी टीम उनके साथ गाने लगी, ‘ओ जोगीरा सा रा रा…’ पर लोग झूम रहे थे। फिर रितेश ने लोगों के बीच अपनी बातें रखीं और जत्थे के महत्व पर लोगों से बातचीत भी की। उसके बाद इप्टा के राष्ट्रीय सचिव शैलेन्द्र ने लोगों को संबोधित किया। उन्होंने बताया कि, यह गांधी जी, भगत सिंह की विरासत को बचाने का समय है और आज हम जहाँ खड़े होकर बातें कर रहे हैं, यह पूरा क्षेत्र गांधी जी और किसानों-मज़दूरों की एकता का एक मिलन बिंदु रहा है। यह गांधी जी और उनके कई साथियों का कर्मक्षेत्र रहा है। आज उस भूमि को, हमारे मुल्क को घृणा का अखाड़ा बनाया जा रहा है। पहले जब मैं बच्चा था तो एक भजन सुनता था, ‘मन तड़पत हरि दरशन को आज’, इसे गाया मोहम्मद रफी ने, लिखा शकील बदायूँनी ने और संगीतकार थे नौशाद। इन्होंने सभी दूरियाँ खत्म कर दीं। यह मुल्क बनते-बनते बना है। अमीर खुसरो, सूफियों-संतों की लम्बी परम्परा, गालिब, मीर, निराला, कालिदास सभी से गुज़रकर यह गुलिस्तां बना है। स्वतंत्रता आंदोलन में भगत सिंह और गांधी जी में कुछ वैचारिक भिन्नता थी, उनके तरीके कुछ अलग थे; लेकिन दोनों एक साथ देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। सिर्फ़ आज़ादी ही नहीं, बराबरी, समानता के साथ आज़ादी, मज़दूरों-किसानों की आज़ादी, महिलाओं को सामंती शिकंजे से आज़ादी! दोनों देश को एक सेक्यूलर देश देखना चाहते थे। हम उन्हीं के असली वारिस हैं। हम उन संघर्षों और सपनों की रक्षा करने, आपके साथ जुड़ने के लिए यहाँ आए हैं। गांधी जी के पास नैतिक ताकत थी। हम मोहब्बत का पैग़ाम लेकर आपके पास आए हैं।
फिर एक बार गीत की शुरुआत की लक्ष्मी प्रसाद यादव ने – ‘सोनेवाले जाग समय अंगड़ाता है’। उसके बाद उन्होंने दूसरा गीत सुनाया, ‘बढ़े चलो जवान तुम बढ़े चलो, बढ़े चलो।’
पूर्व विधायक रामाश्रय प्रसाद सिंह ने अपनी बातें रखते हुए कहा, यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है, हम नए पौधों को देख रहे हैं। उन्हें देख यह विश्वास बढ़ा है कि अभी भी भविष्य सुरक्षित है। जब तक बच्चे एक सुर में एक साथ रहने का प्रण लेते हैं, तब तक हमें कोई परास्त नहीं कर सकता। इसके बाद लक्ष्मी प्रसाद यादव ने फिर एक गीत सुनाया,
‘कैसे जइबै गे सजनिआ पहाड़ तोड़े ला
हमर अंगुरी से खूनवा के धार बहेला।’
साथी रितेश ने उपस्थित लोगों से जत्थे में शामिल होने की अपील की। उसके बाद प्रमुख चमन जी ने कहा कि ढाई आखर प्रेम का उद्देश्य आप सब जानते हैं। आप कितना भी विकास क्यों न कर लें, अगर प्रेम और विश्वास नहीं तो ऐसे विकास का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह गांधी जी की कर्मभूमि रही है और उन्होंने हमें प्रेम और त्याग का पाठ पढ़ाया है। हम अपनी बहुसांस्कृतिक पहचान को लेकर ही सुंदर दिखते हैं।
निसार अली और देवनारायण साहू ने छत्तीसगढ़ की लोकनाट्य नाचा-गम्मत शैली में ‘ढाई आखर प्रेम’ नाटक प्रस्तुत किया। दर्शकों का उत्साह देखते बनता था। स्थानीय लोगों के लिए नाचा-गम्मत बिल्कुल नया था, जिसका लोगों ने खूब लुत्फ़ उठाया। बच्चे कूद रहे थे इतना उत्साह था। नाटक के बीच बीच में कबीर, रहीम के दोहे, अदम गोंडवी की ग़ज़लें भी प्रस्तुत की जा रही थीं।
‘प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देई ले जाय’
फिर हिमांशु और साथियों ने गीत प्रस्तुत किया,
‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आए हैं
हम भारत से नफ़रत का हर दाग़ मिटाने आए हैं’
‘ढाई आखर प्रेम’ बिहार राज्य के सांस्कृतिक कार्यक्रम का यह छठवाँ दिन था।
– सत्येन्द्र कुमार