Categories
Daily Update

अगर हम अपना भाईचारा, प्रेम भी भूल जाएँ तो रहेंगे कैसे: सुरहाँ के ग्रामवासी

• बिहार पड़ाव – सातवाँ दिन •

‘ढाई आखर प्रेम’ पदयात्रा का बिहार में आज सातवाँ दिन है। 13 अक्टूबर की सुबह जत्था सिसवा पूर्वी पंचायत में रात्रि विश्राम के बाद प्रभात फेरी के रूप में निकल पड़ा। इस दौरान ग्रामीणों के साथ संवाद किया गया। यहाँ से अपने अगले पड़ाव सुरहा के लिए जत्था चल पड़ा। जत्थे के साथियों ने ‘गंगा की कसम यमुना की कसम, ये ताना बाना बदलेगा। तू खुद को बदल, तू खुद को बदल, तब तो ये ज़माना बदलेगा।’ गाते हुए यात्रा की शुरुआत की। जत्थे के सभी साथियों के चेहरे पर विश्वास था कि यह दुनिया, यह वक्त चाहे कितना ही बुरा क्यों न दिखाई दे या इस दुनिया को बदरंग करने की जितनी भी कोशिशें क्यों न की जाएँ; लेकिन हम जन-जन तक, लोगों के बीच पहुँचकर अपनी सांस्कृतिक विरासत की कथा कहते रहेंगे। हमारा जो बहुरंगी ताना बाना है, उसे बचाने के लिए हम कृतसंकल्प हैं। जत्थे के सभी साथियों ने, चाहे वे युवा हों, बुजुर्ग हों, सबके कदम एक साथ उठ रहे थे उसी जोशखरोश के साथ। कहीं थकावट के चिह्न नहीं। सबमें एक विश्वास और उत्साह, कि हिंसा और घृणा की ताक़तें चाहें जितनी मजबूत हों, हमारी एकता, हमारा भाईचारा, परस्पर प्रेम हमें एक बेहतर दुनिया बनाने से नहीं रोक सकते।

जत्था अपने अंतिम पड़ाव मोतिहारी की तरफ़ बढ़ रहा था अपने बापू की कर्मभूमि की ओर। यूँ तो यह पूरा क्षेत्र ही बापू के पदचिह्नों का अहसास दिलाता है। यहाँ की मिट्टी में बापू के त्याग और बलिदान की की सुगंध है। आज भी हर गाँव गांधी को ही अपना सब कुछ मानता है। ग्रामीणों ने कहा कि हमने ईश्वर को नहीं देखा है, न जानते हैं, लेकिन हमारे देश ने कई ऐसे लोगों को पैदा किया, जिन्होंने जन-जन तक मुस्कुराहट फैलाने और आपसी एकता को एक सूत्र में बाँधने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। लोगों में आज भी विश्वास है कि गांधी जी, भगत सिंह जैसे लोग उनके बीच हैं। आदमी के मर जाने भर से विचार ख़त्म नहीं होते, वह दुनिया ख़त्म नहीं होती, जिसका संकल्प लेकर लोग आगे बढ़ते हैं। हमारे देश में कबीर, रहीम, गुरु नानक, बुल्ले शाह जैसे संत-फकीरों के गीत से सुबह होती है। उनके प्रेम की वाणी हर व्यक्ति के भीतर व्याप्त रहती है। यह फ़कीरों, देशप्रेमियों का देश है। हर संकट से उबरकर खड़ा होना जानता है।

‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक जत्था सिसवा से चलता हुआ लोगों से मिलते हुए सुरहाँ गाँव पहुँचा। यहाँ जत्थे के साथियों ने हरिहर प्रसाद, बाबूलाल महतो, खेदू महतो से बातचीत की। वे सब मज़दूर हैं। उन्होंने कहा कि हम सब आपकी यात्रा का पूर्ण समर्थन करते हैं। अगर देश में हर कोई इसी प्रेम को फैलाने का प्रण ले ले तो आतताई तुरंत समाप्त हो जाएंगे। उन्होंने कहा, हमारा गाँव बहुत गरीब है। पूरे गाँव की जनसंख्या 1200 के करीब है, लेकिन 4-5 लोग ही नौकरी में हैं। ज़्यादातर लोग मोतिहारी शहर जाकर जीवनयापन के साधन ढूँढ़ते हैं। हमारे पास जो थोड़ी ज़मीन है, उसी पर गेहूँ, धान, मकई, गन्ना आदि से जीवनयापन करते हैं। यहाँ हर वर्ष बाढ़ आती है लेकिन दो वर्षों से नहीं आ रही है इसलिए धान हो रहा है। जब बाढ़ आती है तो लोग सुरक्षित जगहों पर अपने जानवरों और घर के कुछ सामान, जो वे बचा सकते हैं, ले कर चले जाते हैं। यहाँ एक मिडिल स्कूल है जहाँ बच्चे पढ़ने जाते हैं। एक विशेषता है हमारे गाँव की कि हम मिलजुलकर रहते हैं। सभी एकदूसरे की मदद करते हैं। हमारे पास आपसी मदद के सिवा है भी क्या! अगर हम अपना भाईचारा, प्रेम भी भूल जाएँ तो रहेंगे कैसे?

जत्थे के युवा साथियों को एक नई दुनिया पहली बार दिख रही थी। जो दुनिया शहरों में दिखती है, जो जगमगाहट दिखती है, उसके लिए गाँवों को अपना बलिदान देना पड़ता है।

फिर जत्थे ने आगे मोड़ पर बरगद के पेड़ के नीचे कार्यक्रम की शुरुआत की। तभी रामदेव गिरी, जो चलने में बिल्कुल लाचार थे, लाठी के सहारे किसी तरह कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। कुछ लोगों ने पानी लाकर दिया। गाँव की लड़कियाँ कुर्सियाँ निकालकर दे रही थीं। जिनके पास जो कुछ था, वह साथियों को देकर अपनी एकजुटता प्रदर्शित कर रहे थे। वे गरीब लोग थे, सीमित साधनों वाले लोग थे, बिचौलिए लोगों की मार से मारे गए लोग थे। लेकिन उनकी जिजीविषा और प्रेम के प्रति समर्पण नई आशा जगाती है।

स्थानीय लोगों ने चौक पर खड़े होकर कार्यक्रम को देखा और बहुत पसंद किया। प्रस्तुतियों के बाद रितेश रंजन ने लोगों को ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक पदयात्रा के बारे में जानकारी दी। उसके बाद शिवानी और साथियों ने गीत गाया, ‘‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आए हैं, हम भारत से नफरत का हर दाग़ मिटाने आए हैं’। दूसरा गीत भी प्रस्तुत किया गया, ‘गंगा की कसम यमुना की कसम, ये ताना बाना बदलेगा। तू खुद को बदल, तू खुद को बदल, तब तो ये ज़माना बदलेगा।’ निसार अली ने अपने संबोधन में कहा, हम दूर से चलकर आए हैं, एक संदेश लेकर आए हैं। यह बाजार का समय है, यह खरीदने-बेचने का समय है। ऐसे में हमें बाजार का विकल्प ढूँढ़ना है। वह बाजार, जो मनुष्य को, उसकी कला को एक कमोडिटी या उपभोक्ता वस्तु में बदल देता है।

सांस्कृतिक संवाद

जत्था वहाँ से निकलकर शाम 6 बजे मोतिहारी शहर से गुज़रकर एनसीसी कैम्पस राजा बाजार पहुँचा। यहाँ शाम को नुक्कड़ पर कार्यक्रम हुआ। सबसे पहले जत्थे के बुजुर्ग साथी गायक राजेन्द्र प्रसाद ने गीत सुनाया, ‘लिहले देसवा के अजदिया, खदिया पहिन के जी’, दूसरा गीत भी उन्होंने प्रस्तुत किया, ‘हमरा हिरा हेरा गइल कचरे में’

उसके बाद निसार अली और देवनारायण साहू ने ‘ढाई आखर प्रेम’ छत्तीसगढ़ी नाटक प्रस्तुत किया। उसके बाद ‘राहों पर नीलाम हमारी भूख नहीं हो पाएगी, अपनी कोशिश है कि ऐसी सुबह यहाँ पर आएगी’ सुनाया।

इप्टा के राष्ट्रीय सचिव शैलेन्द्र कुमार ने महात्मा गांधी के कथन को उद्धृत करते हुए कहा, बापू अपने आप को हिंदू मानते थे और इस बात को वे खुलकर कहते थे। मगर वे बार बार यह भी कहते थे कि मैं अपने आप को केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि ईसाई, मुसलमान, यहूदी, सिख, पारसी, जैन या किसी भी अन्य धर्म-सम्प्रदाय का अनुयायी मानता हूँ। इसका मतलब यह है कि मैंने अन्य सभी धर्मों और सम्प्रदायों की अच्छाइयों को ग्रहण कर लिया है। इस प्रकार मैं हर प्रकार के झगड़े से बचता हूँ और धर्म की कल्पना का विस्तार करता हूँ। यह बात उन्होंने 10 जनवरी 1947 को कही थी। यानी एक धर्म को मानने का यह मतलब नहीं होता कि हम दूसरे धर्मों के खिलाफ हो जाएँ। हमें साथ-साथ रहना है तो परस्पर प्रेम से जीना होगा।

उल्लेखनीय है कि 14 अक्टूबर को मोतिहारी में इस ‘ढाई आखर प्रेम’ बिहार जत्थे की पदयात्रा का समापन होना है, इसलिए रितेश रंजन ने सभी लोगों को समापन कार्यक्रम में आने का निमंत्रण दिया। बिहार इप्टा के कार्यवाह महासचिव फिरोज़ अख़्तर खान ने बताया कि समापन में बात होगी बंधुत्व की, बात होगी बराबरी की, बात होगी ढाई आखर प्रेम की। इसके बाद पदयात्रा मोतिहारी शहर पहुँची। 14 अक्टूबर 2023 को दोपहर 02 बजे गांधी संग्रहालय मोतिहारी में समापन कार्यक्रम आयोजित किया गया है।

  • सत्येन्द्र कुमार
    मीडिया प्रभारी बिहार जत्था
Spread the love
%d bloggers like this: