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अहमदाबाद का बुधन थिएटर और छारानगर; डिनोटिफाइड ट्राइब्स और रंगमंच की कहानी

अहमदाबाद के छारानगर का इतिहास काफी दिलचस्प है और लोगों को ये जानना चाहिए। छारानगर दरअसल डिनोटिफाइड ट्राइब के छारा प्रजाति के लोगों की बस्ती है, जो कि एक सैटलमेंट के तहत बसाये गये थे। यानी एक तरह से उन्हें खुली जेल में रखा गया था। पहले इनको अपराधी सूची के तहत सूचीबद्ध किया था इसलिए इनको नोटिफाइड कहा गया था।

दरअसल 1857 के आज़ादी के संघर्ष में घुमंतू जनजातियों के लोगों की विद्रोहियों को गोपनीय सूचनाएँ और अन्य मदद पहुँचाने में बड़ी भूमिका रही थी, इसलिए अंग्रेजों ने अनेक जनजातियों को अपराधी घोषित कर दिया था। सन 1871 से 1947 के बीच क़रीब 150 समुदायों को अपराधी प्रजाति के तौर पर सूचीबद्ध किया गया था जो आज़ादी के बाद 1952 में उस सूची से निकाले गए। तो पहले उन्हें सूचीबद्ध यानि नोटिफाई किया गया और बाद में उन्हें सूची से बाहर यानि डीनोटिफाई किया गया। इसीलिए इनका नाम डीएनटी पड़ गया। लेकिन डिनोटिफाइड कहने से उनके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ा, उनसे वैसा ही भेदभावभरा बर्ताव किया जाता रहा।

तो डिनोटिफाई ट्राइब्स को कोर्डन ऑफ किया जाता था, मतलब उन्हें एक सुरक्षा घेरे में या पहरे में रखा जाता था। जब उनको काम के लिए बाहर निकाला जाता था तो उनसे दस्तख़त करवाये जाते थे और दस्तख़त करवाकर ही उन्हें वापस लाया जाता था। पहले उनके साथ बहुत अमानवीय स्थितियाँ होती थीं, उन्हें ज़ंजीरों आदि से भी बाँधा जाता था। लेकिन बाद में उनको धीरे-धीरे रहने की जगह के लिए एक घेरा तय कर दिया गया और वे लोग एक घेरे में रहने लगे। छारानगर सरकारी ज़मीन मानी जाती है। काफी बरसों से, लगभग 80-100 वर्षों से वे यहाँ रह रहे हैं, अपने पुरखों के ज़माने से। वे ज़मीनें अभी भी उनके नाम पर नहीं हैं, जहाँ वे रह रहे हैं। दूसरी बात, अधिकतर डीएनटी लोगों के दिमाग़ में यह भर दिया जाता है कि तुम जिस समुदाय के हो, उसका कर्त्तव्य ही छल-कपट और अपराध करके आजीविका चलाना है। मध्य प्रदेश में कंजर, पारधी और बंजारे भी इसी तरह नोटिफाइड जनजाति थे। छाराओं के बारे में भी यही कहा जाता है कि अगर वो बिना चोरी, ठगी, लूट किये, मेहनत करके घर चलाएँगे तो अपशगुन होगा। उनको यही समझाया गया था इसलिए वे अपना दायित्व समझते थे कि हमारे जीवन का प्रमुख कर्तव्य यही है कि जीवन में चोरी करके कमाना है और अवैध काम करके कमाना है। बाद में चोरी करने से लेकर अवैध शराब बनाने में और अलग-अलग तरह के गलत कामों में ये सब लोग शुमार होते रहे।

मेरी जानकारी में 1980-90 के आसपास कुछ लोगों ने इनके लिए, खासकर महाश्वेता देवी का नाम सबसे पहले लेना होगा, जिन्होंने डिनोटिफाइड ट्राइब्स के पक्ष में आवाज़ उठाई और उसे एक आंदोलन की शक्ल दी। गुजरात में 1998 में महाश्वेता देवी, गणेश देवी के साथ में इस बस्ती में आईं और उन्होंने यहाँ ‘बुधन लाइब्रेरी’ की स्थापना की। बुधन एक ऐसा ही डीएनटी ट्राइब का व्यक्ति था, जिसे पुलिस की हिरासत में पीट-पीटकर कोलकाता में मार दिया गया था। इस पर गणेश देवी की एक मार्मिक किताब भी है। उसके बाद से महाश्वेता देवी, गणेश देवी और शायद लक्ष्मण गायकवाड का यहाँ छारानगर में आना-जाना शुरू हुआ और उन्होंने यहाँ एक थियेटर शुरू किया। उसकी वजह यह हो सकती है कि नट और तमाशे के काम करने और फिर उन्हीं में से चोरी करके गायब हो जाने, वेष बदलने आदि में ये लोग सिद्धहस्त होते थे। इनमें बला की फुर्ती भी होती थी। वे चोरी करके भागने में निपुण होते थे। चपलता, अभिनय, झूठ, पकड़े जाने पर याचना का नाटक आदि के गुण उनके अंदर होते थे। इनकी जो भाषा होती थी आपस में बात करने की, वो भी कूट भाषा होती थी, जिसकी कोई लिपि नहीं होती। उसे वो भान्तु कहते हैं और वो कई भाषाओं का मिलाजुला रूप होती है। इनमें एक नैसर्गिक प्रतिभा थी कला की – थियेटर की, नृत्य करने की, संगीत की; इस तरह से इन्होंने थियेटर का एक ग्रुप बनाया और बुधन वाचनालय से बुधन थियेटर बना।

उसमें पहली पीढ़ी के जो कलाकार थे, उसमें दक्षिण छारा नामक कलाकार उभरा, जो अब शायद 45-50 की उम्र का होगा, जिसने बुधन थियेटर में कई नाटक तैयार किये। पहले तो नुक्कड़ नाटकों की शक्ल में ये नाटक बनाते थे, फिर उसके बाद तो प्रोसिनियम बनाना भी शुरु किये। जब प्रोसिनियम बनाया तो वे जर्मनी फेस्टिवल तक गए। एक बार तो मुझे हबीब साहब ने यह बताया था कि उनका नाटक इनके नाटक के सामने फीका पड़ गया था। जर्मनी में दर्शकों ने बुधन के नाटक को ज़्यादा प्रतिसाद दिया था। गणेश देवी और महाश्वेता देवी की अंतरराष्ट्रीय पहचान है, इसलिए बुधन थिएटर को भी अंतरराष्ट्रीय पहचान और अंतरराष्ट्रीय प्रोत्साहन भी प्राप्त हुआ। महाश्वेता देवी नहीं रहीं, गणेश देवी भी अनेक दूसरे कामों में लग गए लेकिन वो शम्मा जलती रही और 1998 से हम आज 2024 तक इनका ढाई दशक का सफर देखते हैं।

निसार अली और संजय छरानागर में नाटक ‘चालाक शिकारी’ प्रस्तुत करते हुए

छारानगर अहमदाबाद में 03 जनवरी 2024 की रात 8 बजे से 11-11.30 बजे तक हमने जो ‘ढाई आखर प्रेम’ का कार्यक्रम किया था, वह एक ऐतिहासिक परिघटना थी। शुरू से ही मेरी और मनीषी भाई की यह समझ थी कि इस यात्रा में बुधन को ज़रूर शामिल करना है। यह बहुत ज़रूरी है कि इस थियेटर के बारे में, बुधन थियेटर के बारे में पूरे देश में ये बात पहुँचे कि हमने जब गुजरात में यात्रा के अपने रास्तों का चयन किया, तो उनमें इस तरह की जगहों पर जाने को हमने प्राथमिकता दी, बजाय कि बड़े मंचों पर जाकर कार्यक्रम करें ! ये जो जगहें हैं, इसमें आम लोग ही दर्शक हैं और आम लोग ही नायक हैं। इस यात्रा के मकसद को पूरा करने में भी बुधन थिएटर जैसी संस्थाओं से जुड़ाव मददगार होता है।

प्रगतिशील लेखक संघ, गुजरात के महासचिव रामसागर सिंह परिहार ने छारानगर पर रची गई आज़ादी-पूर्व की एक रचना का परिचय देते हुए कहा, ‘‘छारा लोगों की जीवन-शैली और सरकार के दमन पर आधारित चंद्रभाई भट्ट ने ‘भट्टी’ शीर्षक से उपन्यास लिखा था। ये आज़ादी के पहले लिखा गया उपन्यास था। उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उसे जब्त कर लिया गया था। ये प्रतिबंध गुजरात के भीतर आज़ादी के बाद भी जारी रहा। लेकिन लगभग 1980 के बाद यह प्रतिबंध हटा और अहमदाबाद स्थित पीपुल बुक हाउस ने उसका पुनर्प्रकाशन किया। उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया था। उस समय वहाँ की जो जीवन-शैली थी, पुलिस का जो दमन-चक्र था, उनके लिए निर्धारित चारदीवारी से जो लोग निकलते थे, उनका नाम लिखा जाता था। कभी कभी तो पुलिस उनके साथ-साथ जाती थी यह देखने कि, वे कहाँ जा रहे हैं। वे जब लौटकर आते थे, तब उनका नाम फिर से दर्ज होता था। ये पूरी प्रक्रिया उस उपन्यास में चित्रित की गई है। ‘भट्टी’ शीर्षक सतत जलने वाली प्रक्रिया का प्रतीक है।

वर्तमान पीढ़ी भी बहुत कुछ लिख और रच रही है, यह छारानगर के कार्यक्रम में दिखाई दिया। ये न सिर्फ अपनी भाषा भान्तु में, बल्कि हिंदी में भी गीत और नाटक लिख रहे हैं।

पहली दफ़ा मुझे और जया मेहता को गणेश देवी ही क़रीब 20 बरस पहले छारानगर लेकर आये थे। तब हमने एक नाटक बनाया था ‘धरती पर कहाँ है हमारी जगह’; जो आदिवासियों के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विस्थापन पर आधारित था। यह शुरु होता था बिरसा मुंडा से और खत्म होता था कलिंग नगर के मारे गये आदिवासियों पर खत्म होता था। गणेश देवी ने वह नाटक देखा था इसलिए बुधन थियेटर से हमारा परिचय करवाया था। तब से यह लगभग तीसरी पीढ़ी है जो थिएटर भी कर रही है, गीत, कविताएँ और फ़िल्मों में भी जगह बना रही है।

20 बरस बाद ‘ढाई आखर प्रेम’ की यात्रा के तहत यहाँ आने पर यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि एक पूरी नई पीढ़ी उस परम्परा को पूरी तरह नयी ऊर्जा के साथ सम्हाले हुए है और आगे बढ़ा रही है। साथ ही यहाँ के अनेक लोग, जैसे आतिश, रॉक्सी, उनकी छारा समुदाय से सम्बद्ध जीवनसाथी गुजराती फिल्मों में स्थापित अभिनेत्री बन गई हैं। ये फिल्मों में भी काम कर रहे हैं, इन्होंने नये तरह का संगीत भी तैयार किया है। एक संगीत तो ऐसा भी है, जो सिर्फ शराब बनाने वाले उपकरणों से बनाया गया है, जो वहाँ के एक साथी ने तैयार किया है।

एक कविता सुनाई गई थी ‘जाड्डा’, जो भान्तु भाषा में थी। इसमें बताया गया था कि जो ठंड पड़ती है, वह उनके घरों पर क्या और कैसा असर डालती है। यह विरल अनुभव है बाकी मध्य वर्गीय कविता से।

सेवानिवृत्त दूरदर्शन निदेशक रूपा मेहता जानी और अभिनेत्री कल्पना गागड़ेकर

छारानगर का अनुभव काफी ज़बर्दस्त था। सब लोगों से बहुत आत्मीयता से मिलना हुआ। हमारे कलाकार जो साथ थे, उनसे भी सब बहुत अच्छी तरह मिले। अहमदाबाद के साथी मनीषी जानी और उनकी जीवनसाथी रूपा, जो 1974 में गुजरात में हुए नवनिर्माण आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता रहे, (रूपा जी दूरदर्शन गुजरात की निदेशक भी थीं और उन्होंने भी यहाँ कई कार्यक्रम किये) जिसका एक बहुत सकारात्मक और प्रगतिशील चेहरा भी था। गुजरात के प्रतिष्ठित कवि साहिल परमार, ईश्वर सिंह चौहान ने भी अपनी कविताएँ सुनाईं। प्रगतिशील लेखक संघ के करतार सिंह भी कार्यक्रम में उपस्थित रहे।

कार्यक्रम काफी लंबे समय तक लगभग रात 11.30 बजे तक चलता रहा। उसके बाद जो पता चला, वो हास्यास्पद भी है और करूणास्पद भी कि हमें वापस लौटने के लिए ओला-उबेर नहीं मिली तो वहाँ के लोगों ने हँसते हुए बताया कि ओला-उबेर वाले इस इलाके में आने से डरते हैं। वहाँ से बाइक से कुछ दूर तक छोड़ने पर ही ओला-उबर मिल पाएगी। रात को यहाँ आने की कोई हिम्मत नहीं करता।

अभी भी ऐसा नहीं है कि समूचे छारा समुदाय के लोग उस दलदल से बाहर आ गए हैं। एक छोटा हिस्सा सजग हो गया है, मगर अभी भी समुदाय के बहुत से युवा नशे में, अवैध शराब और अन्य अवैध धंधों में लिप्त हैं। छारानगर से लगा इलाक़ा नरोदा पाटिया का है। बताते हैं जब 2002 में मुसलमानों का नरसंहार किया गया था तब आदिवासियों और दलितों में से कुछ लोगों को मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था, इन्हीं को मोहरा बनाया गया था। बाद में जब गिरफ़्तारियाँ हुईं, तब भी यही लोग पकड़कर जेलों में ठूँसे दिए गए थे। उदित राज ने उस वक़्त पूरे आँकड़े देकर बताया था कि कैसे दलितों और आदिवासियों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया और जब दुनिया को दिखाना पड़ा कि गुनाहगारों को पकड़ा गया है तो इन्हीं दलितों और आदिवासियों को पकड़कर जेलों में डाल दिया गया।

छारानगर में जिन लोगों से हम मिले, चाहे वो वरिष्ठ हों या युवा, वो बहुत समझदार थे। उन्हें इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और वो दुनिया को बेहतर बनाने वाली कोशिशों में शामिल हैं। वो नफ़रत की साज़िशों को पहचानते हैं और मोहब्बत से इन साज़िशों को काटने का हुनर भी जानते हैं।

बुधन थिएटर ढाई आखर प्रेम यात्रा का ज़रूरी पड़ाव था। उम्मीद है कि इप्टा के साथ बुधन का रिश्ता गाढ़ा होगा और दूर तक चलेगा।

इप्टा बिहार के साथियों की प्रस्तुति
अहमदाबाद के कवि साहिल भाई
उमेश सोलंकी द्वारा कविता प्रस्तुति
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