बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक त्यौहार ‘विजयादशमी’ हर साल पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। दशहरे से पहले कई जगह ‘रामलीला’ होती हैं। एक दौर था, जब ‘रामलीला’ सभी के आकर्षण का केन्द्र हुआ करती थीं। लोगों को इसका साल भर इंतज़ार रहता था। अदाकारी के शौक़ीन ‘रामलीला’ में अपना पार्ट करने के लिए महीनों तैयारी करते थे। इसके लिए बाक़ायदा चंदा होता और वे इंतज़ाम में जुट जाते। ‘रामलीला’ की शुरुआत से ही लोग पूरी अक़ीदत से इसे रात—रात भर देखते थे। लेकिन देखते—देखते वक़्त बदला, लोगों की दिलचस्पियां भी बदल गईं। नई पीढ़ी में ‘रामलीला’ का वह पहले जैसा क्रेज नहीं रहा। तथाकथित आधुनिकता की बयार, बाज़ारवाद और ज़िंदगी की जद्दोजहद ने हमारे तमाम त्यौहारों से उनकी रौनक छीन ली। त्यौहार भी औपचारिक होकर रह गए। इन त्यौहारों पर अब पहले जैसा जश्न, साम्प्रदायिक सद्भाव और चेहरे पर कहीं ख़ुशियां देखने को नहीं मिलतीं। साम्प्रदायिक सद्भाव, ख़ुलूस, मुहब्बत, आपसी भाईचारा और हमारे त्यौहारों को भी जैसे ज़माने की नज़र लग गई।
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के निवासी मेरे नाना समशेर खॉं अपने नगर में हर साल दशहरे पर होने वाली ‘रामलीला’ में रावण का किरदार अदा करते थे। नानी के घर की दीवार पर आज भी रावण के गेटअप में उनकी एक आकर्षक तस्तीर लगी हुई है। इस तस्वीर को देखने से एहसास होता है कि अपने गेटअप और मेकअप के लिए नाना, ख़ासी तैयारी किया करते थे। उस ज़माने में यानी आज से चार—पांच दशक पहले, जब मेकअप और ड्रेसें परम्परागत तौर पर बनाई जाती थीं। सीमित संसाधनों में अत्याधिक प्रभाव पैदा करने के लिए क्या—क्या जुगत भिड़ाना पड़ती होगी ?, इस तस्वीर को देखने से मालूम चलता है। इस तस्वीर के अलावा दीवार पर एक और तस्वीर लगी हुई है, इस तस्वीर में नाना कंस के गेटअप में बाल कन्हैया को एक हाथ से ऊपर उठाए हुए हैं। टीकमगढ़ की चार दशक से ज़्यादा पुरानी यह ‘रामलीला’ और ‘कृष्णलीला’ तो मैंने नहीं देखी। लेकिन बचपन की एक बात, जो मुझे अभी तलक याद है, नाना दीपावली पर लक्ष्मीजी की पूजा भी करते थे। पूजा के बाद हम बच्चों को खीलें—बताशे और मिठाईयां मिलतीं। भले ही नाना के इंतिक़ाल के बाद, उनके घर में यह परम्परा ख़त्म हो गई हो। लेकिन इस रिवायत को मेरी मां ने हमारे यहां ज़िंदा रखा। हमारे छोटे से नगर शिवपुरी में भी उन दिनों, दो जगह पर ‘रामलीला’ खेली जाती थी। मां दोनों ही रामलीला में हम बच्चों को साथ ले जातीं। जिसका हम जी भरकर लुत्फ़ उठाते। ख़ास तौर पर भगवान राम, उनकी वानर सेना और रावण की सेना के बीच चलने वाला युद्ध हम बच्चों को ख़ूब रास आता। उन दिनों रामलीला का ख़ुमार हम बच्चों पर इस क़दर छा जाता कि बांस की पतली डंडियों के छोटे—छोटे धनुष—बाण बनाकर आपस में खेला करते। कुछ बच्चे हनुमानजी की गदा बनाकर, जिसे हम सोठा कहते थे हनुमानजी का अभिनय करते। जिस मोहल्ले में मेरा बचपन गुज़रा, वहां होली—दीवाली—रक्षाबंधन गोयाकि हर त्यौहार, मज़हब की तमाम दीवारों से ऊपर उठकर, हम पूरे जोश—ओ—ख़रोश से मनाते थे। आज भी यह परम्परा टूटी नहीं है। बस उन्हें मनाने का अंदाज़ बदल गया है।
‘रामलीला’ में अदाकारी के जानिब नाना के जुनून, ज़ौक़ और शौक़ की कुछ दिलचस्प बातें, मेरी मां अक्सर बतलाया करती हैं। मसलन नाना ‘रामलीला’ के लिए घर से ही तैयार हो कर जाया करते थे। उन्हें रामायण की तमाम चौपाईयां मुंहज़बानी याद थी। रावण के अलावा ‘रामलीला’ में वे ज़रूरत के मुताबिक और भी किरदार निभा लिया करते थे। रावण का किरदार उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक निभाया। उनकी बीमारी की हालत में भी ‘रामलीला’ के संयोजकों ने उनसे नाता नहीं तोड़ा। उनकी नाना से गुज़ारिश होती कि वे बस तैयार होकर, रामलीला स्थल पर आ जाएं। बाकी वे संभाल लेंगे। जैसा कि अमूमन होता है, मंच पर आते ही हर कलाकार ज़िंदा हो जाता है। वह अपने किरदार में इस तरह ढल जाता है, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। ऐसा ही नाना के साथ होता और वे बीमारी की हालत में भी अपना रोल अच्छी तरह से निभा जाते।
सबसे दिलचस्प बात, जिसे मेरी मां ने बतलाया, नाना के इंतिक़ाल (निधन) के बाद एक मर्तबा दशहरे के वक़्त वह टीकमगढ़ में ही थीं। दशहरा का जुलूस निकला, तो ज़ाहिर है कि वे उसे देखने पहुंची। जुलूस देखा, तो उन्हें काफ़ी निराशा हुई और उन्होंने पास ही खड़ी एक बुजुर्ग महिला से बुंदेली बोली में पूछा, ”काहे अम्मा ऐसा जुलूस निकलत, ईमें रावण तो हैई नईएं ?”
बुजुर्ग महिला ने इस सवाल का जवाब देते हुए कहा, ”का बताएं बिन्नू, रावण ही मर गया।”
मां ने हैरानी से पूछा, ”रावण मर गया !”
”हां बेन, रावण मर गया। जो भईय्या रावण का पार्ट करत थे, वे नहीं रहे। वे नहीं रहे, तो रामलीला भी बंद हो गई।”