Categories
Travelogue

‘रास्ते की खोज’ | यात्रा के साथ यात्रा (भाग-1)

यात्रा संस्मरण: ढाई आखर प्रेम यात्रा, झारखंड पड़ाव

Spread the love

सहेजना, सीखना, संवारना और संवाद करना यात्रा से मिलने वाले अनुभव हैं। इन अनुभवों को दर्ज़ करना कहीं न कहीं दोबारा उस समय को जीना होगा। सबकी स्मृति में टंक जानी वाली यादें असल में बार-बार बात किए जाने से पन्ने में किसी किस्से सी छप जाती है पर कुछ अवलोकन और यादों के लिए हमें फिर से शांत होकर उस यात्रा में निकालना पड़ता है जो हमें महत्वपूर्ण पलों की दस्तक देती है और यही किसी भी यात्रा के संस्मरण की सुंदरता तय करती है। थोड़ा समय गुजर जाने के बाद ठहरकर हम बहुत कुछ ऐसा हासिल करते हैं कि स्वयं भी सुखद आश्चर्य से भर जाते हैं। यह लिखते हुए सवाल कौंध रहा है कि क्या मुझे यह हासिल होगा? बहरहाल यह पाठकों पर छोड़ते आगे बढ़ती हूँ।

मुझे लगता है यात्रा की यादों को दर्ज़ करना खुद से बात करना भी होता है जो किसी यात्रा के समय स्थगित रहता है। स्थगन का यह भाव ही हमें सूक्ष्मता से बीते रास्तों में ले जाता है और हम चकित-विस्मित होते उन पलों को बार-बार जीना चाहते हैं। बार-बार जीने की यह चाह हमें जीवन के नैराश्य से दूर करती है तो उम्मीद के झरोखे पर क्षितिज तक की संभावनाओं को टटोलने का साहस देती है। संभावनाओं से भरपूर ढाई आखर प्रेम यात्रा को शब्दशः जी पाना पूरी तरह से मुमकिन नहीं पर फिर भी कोशिश रहेगी कि ज़रूरी लोग, जगहें, क्षण और संवाद को स्थान दे पाऊँ।

राष्ट्रीय काउंसिल की मीटिंग और ढाई आखर यात्रा पर हुई दिल्ली की मीटिंग में ही झारखंड में डाल्टनगंज के अलावा किसी और स्थान में इस यात्रा को करने का उपेन्द्र भईया सोचने लगे थे। झारखंड में सांगठनिक गतिविधियों में संलग्न हुए मुझे ज्यादा समय नहीं हुआ है फिर भी सीमित अनुभव के आधार पर यह समझ आता है कि जब-जब किसी आयोजन की ज़िम्मेदारी लेने की बात आती है तो सहज ही इकाइयों से पूछा जाता है, इसी क्रम में हम लोग यानि घाटशिला और जमशेदपुर इकाई भी अन्य इकाइयों के साथ शामिल रहे। इस बार की तय यात्रा तो हो चुकी है पर फिर भी दिल की बात यह थी कि इसमें अगर हम लोग घाटशिला से चलकर सराइकेला, चाईबासा तक या घाटशिला से हाता होते चाईबासा जाते तो इस प्रक्रिया में 3 इकाइयां और उनके साथ और भी संगठन और लोग जुडते ऐसी मेरी व्यक्तिगत समझ थी। किसी राज्य में एक साथ 3 स्थान की इकाइयां मिलकर काम करतीं और ढेर सारे लोग जुड़ते, यह एक ख्वाहिश रही। खैर! साथियों के सीमित संसाधन, समय का अभाव वजह रहा।

संगठन में इकाई में सीमित दायरे में काम करना और उसे विस्तार देते हुए दूसरी इकाईयों, संस्थाओं, संगठनों और लोगों के साथ विस्तार देते हुए काम करना उस समय चुनौती होता है जब आपके पास किसी तरह का अनुभव होता नहीं, सिवाय सांगठनिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी के। निश्चित ही यह पक्ष अनुभवी साथियों की नज़रों में रहता है और वे आपको रास्ता दिखाते, हाथ पकड़कर चलना सिखाने में कोताही नहीं करते और यही किसी आयोजन को सहजता से आगे ले जाने में काम आता है। पिछले वर्ष की ढाई आखर प्रेम यात्रा में जुड़े साथी, संस्थाओं और संगठनों के साथ चलने का अनुभव रहा और उनसे किसी न किसी रूप में संवाद भी बना रहा जिसकी वजह से इस बार यात्रा की तैयारी शुरू करने के पूर्व संकोच और भय नहीं था बल्कि एक विश्वास बना रहा कि स्थानीय स्तर पर हम सब मिलकर कोशिश कर यात्रा के मूल को छू पाने की कोशिश कर लेंगे। इस बार चूंकि सांस्कृतिक पदयात्रा का स्वरूप गांवों में विस्तारित था तो चिंता होना स्वाभाविक था। जिनसे स्थानीय स्तर का संपर्क हुआ उनका कार्यक्षेत्र भी शहर और उसके आसपास तक सीमित था। वैसे इससे पहले यह याद भी है कि रांची के राज्य सम्मेलन में यात्रा प्रस्ताव के बारे में बात हुई और उसमें जोश-उत्साह से हम लोगों ने यह प्रस्ताव दिया। यही जोश बरकरार रखते लगा कि तैयारी के लिए समय पर्याप्त है और सीमित संसाधनों और सादगी भरी इस यात्रा के लिए ज्यादा कुछ नहीं करना है, बस यात्रा रूट, रात्रि पड़ाव और अन्य पड़ाव तय करना होगा।

अभी याद करने से लगा कि इन शुरुआती तैयारियों में घुसने से पहले यह समझ नहीं आ रहा था कि कौन-सा रास्ता चुना जाए जिसका ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक महत्व हो। इस प्रयास में अलग-अलग रास्तों में कुछ गांवों में भटके और इस भटकन ने यह समझ दी कि पक्का रूट बनाकर अनजान गांवों में लोगों से मिलना उन्हें ढाई आखर प्रेम यात्रा का महत्व समझा पाने के लिए समय के साथ -साथ अनुभव की भी कमी है। फिर भी ‘जहां चाह वहाँ राह’ की कहावत ने अपने आसपास उन लोगों को ढूँढना शुरू किया जो आदिवासी गांवों से परिचित हैं और वे स्वयं आदिवासी हैं। कुछ गांवों में संथाली थियेटर करने वाले गोमहेड़ के साथी रामचन्द्र मार्डी और उर्मिला हाँसदा के साथ घूमना-भटकना शुरू हो चुका था। शुरुआत में एकाध बार संकोच भी हुआ कि ये साथी कितना समय साथ घूमने में लगा रहे हैं तो उन्होंने जो जवाब दिया कि हम लोग फुरसत के समय अपने आसपास के गांवों में घूमते हैं। उनके घूमने -भटकने की आदत से परिचित होने के बाद सहजता महसूस हुई और उन साथियों से तुलना करने पर यही लगा कि हम फुरसत मिलने पर अपने आसपास के भूगोल में कब, कहाँ और कैसे भटकते हैं? शायद बहुत कम ही भटकते हैं!

संगीत नाटक अकादमी पुरुस्कृत बानाम वादक दुर्गाप्रसाद मुर्मू के साथ हीरा अरकने, सुनीता मुर्मू और अर्पिता

ढाई आखर प्रेम यात्रा में हम लोगों ने अलग-अलग स्तर पर छोटी-बड़ी मीटिंग की जिससे तरह-तरह के सुझाव आए। साथी संजय सोलोमन ने सुनीता मुर्मू को याद कर जोर दिया था कि यात्रा का रूट बनाने में उसकी सहायता लेनी चाहिए क्योंकि वो इस क्षेत्र का चप्पा-चप्पा जानती है। जब उससे मुलाकात हुई और जमशेदपुर से घाटशिला यात्रा का प्लान बताया तो उसने मुझे थोड़ी ही देर में गांवों के नाम के साथ रास्ता बता दिया जो कि सबसे बड़ी दुविधा थी। इसके बाद उसके साथ और हीरा अरकने भाई के साथ ही यात्रा के अंतिम गाँव डोमजुड़ी के रास्ते भाटिन तक घूमकर कुछ अंदाजा हुआ। कुछ लोगों से सुनीता ने मुलाकात कराई , फोन नंबर उपलब्ध कराया। स्थानीयता का अर्थ समझ आया और एक हिम्मत भी बनी कि लोगों के पास जब आप जाकर बात करने की कोशिश करते हैं तो कुछ न कुछ रास्ता निकलता है।

अब यात्रा की तैयारी से निकाल थोड़ा साथी सुनीता मुर्मू के बारे में बताना ज़रूरी है। सुनीता मुर्मू जुझारू साथी हैं जो आदिवासी स्त्रियों की आजीविका और जीवन-स्तर को ऊपर उठाने के लिए जमीनी स्तर पर काम कर रही हैं, आदिवासी महिलाओं को सब्जी बाजार में सब्जियां बेचने में सहायता कर रही हैं। वो स्वयं भी उनके साथ बैठती हैं तो इस बात का अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि वे उनकी बुनियादी जरूरतों में भी किस स्तर पर सहायता करती होंगी। आजीविका के साथ अपनी पहचान को लेकर वे जागरूक हैं, वहीं समाज में बढ़ते अलगाव और भेदभाव से हमेशा विचलित रहने और उस पर बातचीत कर कुछ करने के जज़्बे से भरी हैं। एकदम युवा साथी सुनीता फिलहाल लॉ की पढ़ाई कर रही हैं। कुछ वर्ष पहले वे स्वयं की एक दुकान भी अपने बूते चलाने का अनुभव रखती हैं। लगातार एक बड़े क्षेत्र में कई गांवों में काम करने वाली साथी ने संथाली गांवों की कुछ बुनियादी बातें बताईं जो पूरी यात्रा में काम आईं। उनकी प्रतिबद्धता का ज़िक्र भी ज़रूरी है। वे इस यात्रा से सहमत और उत्साहित थीं पर अपने क्षेत्र के काम को एक दिन के लिए भी छोड़ पाना सुनीता के लिए मुमकिन नहीं हुआ तो वे ढाई आखर प्रेम यात्रा में किसी भी पड़ाव में शामिल नहीं हुईं जिसका हमें एक तरफ अफसोस है वहीं यह सीख भी है कि अपने काम को प्राथमिकता दें। इस तरह से काम को तवज्जो देने वाले लोग जब समाज में बढ़ेंगे तो हम बेहतर दुनिया को बना पाने के सपने को साकार कर पाएंगे।

सुनीता के साथ की एक अनुभूति साझा करना चाहूँगी। जिस दिन उसने एक कागज में गांवों के नाम लिखकर बताए मुझे लगा था कि यात्रा का बहुत बड़ा काम हो गया है, बड़ी राहत महसूस हुई थी। वो कागज़ अभी भी यात्रा की डायरी में पूरी यात्रा साथ रहा, उस पुर्ज़े में ही अभी सम्पन्न हुई झारखंड की यात्रा के अनमोल क्षण दस्तक देने के लिए दर्ज़ हुए थे।

साथी सुनीता को हम सभी का प्यार भरा अभिवादन।

Spread the love
%d bloggers like this: