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‘वे बस हवा-सी घुलमिल गईं थीं’ | यात्रा के साथ यात्रा (भाग-2)

यात्रा संस्मरण: ढाई आखर प्रेम यात्रा, झारखंड पड़ाव

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तैयारी के सिलसिले में लगातार रास्तों की खोज और लोगों से मुलाकात हो रही थी। हर मिलने वाले से बात करने के लिए कुछ और विषय सूझता ही नहीं था। यह बात सिर्फ़ मुझ तक सीमित नहीं है बल्कि ढाई आखर प्रेम यात्रा की तैयारी से जुड़े प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हर साथी की होगी। यह बात भी सचेत रूप से इसलिए दर्ज़ कर रही हूँ क्योंकि कई जगहों में इसमें चूक हुई है कि ‘ढाई आखर प्रेम यात्रा’ कहने पर कहीं कुछ लोगों ने, कुछ मीडिया की रिपोर्ट्स में इसे सिर्फ इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा कहा गया जबकि इस यात्रा में हर स्थान में कई सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन जुड़े। यकीन मानिए जब-जब ‘ढाई आखर प्रेम यात्रा’ को सिर्फ इप्टा के नाम से जोड़कर सीमित किया गया, यह सुनकर-पढ़कर यही लगा कि ढाई आखर प्रेम यात्रा के संदेश के मूल को पहुंचाने में हमारी कहीं चूक रही। आज के समय में जब प्रगतिशील मूल्य जीने वाले लोग, संगठन और संस्थाएं अलग-अलग क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने में लगे हुए हैं, उसमें ‘ढाई आखर प्रेम यात्रा’ एक ऐसी पहल है जिसमें साथ चलने में किसी को गुरेज़ नहीं बल्कि इस यात्रा में कई रचनात्मक कामों से हम परिचित हुए – जिनके बारे में राज्य के साथियों ने पहल की – और सहज ही सकारात्मक प्रतिक्रिया आई कि अरे वाह! ऐसा भी कुछ हो सकता है। जब सामूहिकता में काम किया जाता है तो प्रबंधन और आइडिया के स्तर पर काम होता है और कुछ नया हासिल होता है।

झारखंड पड़ाव से पूर्व 28 सितंबर से 2 अक्टूबर, 2023 तक राजस्थान की यात्रा में शामिल होने का अवसर मिला था जिसकी वजह से कुछ बातें समझ आनी शुरू हुईं। अनुभव का यही महत्व है कि हम समय, परिस्थिति और भूगोल के अनुसार उसमें कुछ जोड़-घटा सकते हैं। इस सीमित अनुभव के आधार पर कुछ कहने -करने का साहस यात्रा में बना रहा। इस साहस में इज़ाफ़ा किया साथियों ने जो हमेशा उत्प्रेरक का काम करते रहे हैं। हमेशा उत्साहवर्धन करना और साथ चलने को तैयार रहने वाले ऐसे साथियों के लिए शुक्राना का इसके अलावा कोई उपाय सूझ भी नहीं रहा कि यात्रा की तैयारियों को दर्ज करने के साथ उन्हें भी याद करूँ जिसमें निश्चित ही कुछ नई बातें मेरे लिए भी उजागर होंगी। इस भोली उम्मीद के साथ लग रहा है उन तमाम साथियों के नाम दर्ज़ कर दूँ या कहीं उन्हें ढेर सारे लोगों के बीच खड़े होकर पुकारूँ और उनके साथ चलने को याद करूँ। किसी फिल्म की तरह एक साथ कई चेहरे दिखाई दे रहे हैं, कई आवाज़ें सुन पा रही हूँ। सामाजिक और सांस्कृतिक काम करते हुए साथियों के साथ एक भावनात्मक रिश्ता भी धीरे-धीरे बनता है, यह इस यात्रा के लक्ष्य में शामिल है और इस यात्रा का हासिल है।

झारखंड में यात्रा रूट घाटशिला से जमशेदपुर तय करने में सबसे उत्साह में मुझे कोई लगा तो वो थी ज्योति मल्लिक। ज्योति उत्साह से लबरेज़ साथी है जो किसी ज़रूरी काम के लिए सहमत होने पर हाँ कहने में देर नहीं लगाती। वो पहले हाँ करती हैं और उसके बाद क्या करना है, कैसे करना है उस पर आपसी बातचीत करके तय करती हैं। तस्वीर में बड़बिल गाँव में ग्रामीण स्त्रियों से बांग्ला में संवाद करती ज्योति के उत्साह को देखा जा सकता है। अभी ज्योति का ज़िक्र आया तो उससे हुई बातचीत मेरे कानों में गूंज रहे है। उसके कुछ संवाद पढ़ने से आप भी उसकी इस खूबी से परिचित हो जाएंगे –

हम कर लेंगे!
हम देख लेंगे!
हम कर सकते हैं दीदी!
हम जाएंगे तो कुछ न कुछ उपाय कर लेंगे दीदी!

यह सहजता और काम करने की लगन ज्योति की खूबियाँ हैं। साधिकार कुछ कहने का साहस कुदरती उसके व्यक्तित्व में होगा जो सामूहिक काम करने में एक खास चमक के साथ कौंधता है। आज के जोड़-तोड़ के समय में आजीविका के लिए अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय देने के बाद भी सांस्कृतिक चेतना के लिए काम करने वाले ऐसे साथी हम सभी के लिए अनमोल हैं। सैद्धांतिक और किताबी जीवन से सीखने वाले लोगों से अलग ज्योति जी-जीकर सब सीख रही हैं, जो उनके जीवन अभ्यास का हिस्सा है।

इन खूबियों को जब लिख रही हूँ तो ज्योति के साथ शेखर आँखों से ओझल नहीं है। ये दोनों साथी मिलकर ही काम कर रहे हैं। शेखर बतौर लेखक सुपरिचित है और लोग ज्योति को उसकी पार्टनर के रूप में जानते होंगे पर यहाँ यह उल्लेखित करना ज़रूरी है कि सांगठनिक जिम्मेदारियों में समझ होते हुए उसे आगे ले जाने में ज्योति कहीं से भी उन्नीस नहीं हैं। उनकी संगठनात्मक प्रतिबद्धता और काम करने की बेचैनी उन्हें जानने वाले बखूबी जानते हैं।

ज्योति को याद करते हुए जब यह लिखना शुरू किया था तो सोचा था कि इसके बाद अपने उस साथी को याद करूंगी जो सुनीता मुर्मू ( ‘रास्ते की खोज’ | यात्रा के साथ यात्रा (भाग-1)) के बाद यात्रा के लिए महत्वपूर्ण रहा पर यादों के रास्ते में कोई तय यात्रा का रूट तो है नहीं, सो दिल की सुनते हुए याद करूंगी मृदुला मिश्रा को। मुझे पूरा विश्वास है कि उन्हें उनके इस नाम से ज़्यादा लोग नहीं जानते होंगे।

हमारे जीवन में परवरिश के कई गलत अभ्यास शामिल रहे हैं उनमें से एक यह भी है कि बहुत से लोगों को हम सिर्फ उनसे जुड़े रिश्ते से ही पहचानते हैं और इसका परिणाम यह होता है कि अपने नाम को सुनने का अभ्यास छूट जाता है (मैं भी उनमें से एक हूँ जो उनसे बने रिश्ते के नाम से ही जानती थी)। यहाँ यह लिखते हुए देश का पहला आम चुनाव याद आ रहा है जिसमें स्त्रियों को उनके नाम से न दर्ज़ कर किसी की अम्मा, किसी की माई के नाम से किया गया था। इन किस्सों में कई स्त्रियाँ तो जन्म के बाद मिला अपना नाम भी भूल चुकी थीं। जब पहली बार यह वाकया सुना था तो अंदर तक सिहर गई थी।

बहरहाल लौटते हैं यात्रा पर। तैयारी के क्रम में कुछ अंदाज़ा नहीं हो पा रहा था कि कितने नियमित यात्री यात्रा में शामिल होंगे। सबसे पहले जो लिस्ट बनी थी उसमें आंकड़ा देखकर मन ही मन बहुत खुश थे। धीरे-धीरे लिस्ट में जोड़-घटाव चलता रहा। किसी काम, स्वास्थ्य या व्यस्तता की वजह से कुछ लोगों ने पहले ही अपने नाम वापिस ले लिए। एक-दो बार एडिट लिस्ट एक समूह में साझा की फिर लगा कि नियत तारीख के आखिरी के सप्ताह में ही सब कुछ स्पष्ट होगा। मुझे अच्छे से याद है कि सबसे पहले डाल्टनगंज के साथियों की सूची प्राप्त हुई थी, और बाहर से आने वाले साथियों में संतोष, विनोद, वर्षा, साक्षी, सचिन शर्मा की टिकट हुई थी पर अफ़सोस ये सभी साथी शामिल नहीं हो पाए। डाल्टनगंज की लिस्ट में शामिल थीं मृदुला जी।

दूसरी बार जब मैंने झारखंड यात्रा समूह में लिस्ट साझा की तो उनका नाम छूट गया था जिसके लिए रवि ने मुझे याद दिलाया। सच! मुझे भी उस समय लग रहा था कि क्या वे पूरी यात्रा में शामिल रहेंगी? पर बाद में जब वे आईं और जिस जज़्बे के साथ ढाई आखर यात्रा में शामिल रहीं, वह हम सभी के लिए अनुकरणीय है।

बिना पूर्व तैयारी के रोज 12-13 किलोमीटर चलना, शाम के तयशुदा पड़ाव में ठहरना, असुविधाओं में सहज भाव रखना और किसी भी प्रकार की ज़रूरत का जिक्र भी नहीं करना – यह सब अंदर तक प्रभावित कर गया। गीत-संगीत और नृत्य में रम जाना और साथ देने का विरला उदाहरण और मिसाल लगी मुझे मृदुला जी। उम्र के जिस पड़ाव में वे हैं उसमें युवाओं और बच्चों का ध्यान रखना और उनके साथ घुल-मिल जाना बहुत बड़ी खूबी है। अक्सर हम लोग किसी समूह में अपनी पहचान को लेकर सचेत हो जाते हैं और इसी क्रम में हमारा व्यवहार कई बार उचित नहीं रह जाता, पर वे बिना किसी आग्रह-अपेक्षा के बस हवा-सी घुलमिल गईं थीं ढाई आखर प्रेम यात्रा में। मृदुला जी की इन खूबियों को निश्चित ही महसूस नहीं कर पाती अगर वे यात्रा में शामिल नहीं रहतीं। हालांकि उनकी अन्य खूबियों का हम कहीं वैसे ज़िक्र नहीं किए जो किया जाना चाहिए।

बाएं मृदुला मिश्रा जमशेदपुर की साथी अंजना के साथ

अब यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि वे डाल्टनगंज की ऐसी साथी हैं जो मुख्य मंच से परे बहुत सी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह स्मित मुस्कान के साथ करती हैं। ऐसे कई साथी हमारे बीच हैं जिनको याद करना, पहचानना, महसूस कर आगे लाने का काम करना भी ज़रूरी है जिनके सहयोग और साथ के बिना सामूहिक काम में हमारी सक्रियता सीधे प्रभावित होगी। ढाई आखर प्रेम यात्रा ने हमें कई साथी दिए जिनसे परिचय का विस्तार आगे जाएगा ऐसा हमारा विश्वास है।

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