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मानको महाली – निश्छल मुस्कुराहट में दमकता श्रम (श्रम को जीते लोग-1)

अर्पिता

प्रेम में बहुत ताकत होती है लेकिन इसके यह मायने नहीं कि हम शेर से प्रेम कर बैठे पर क्या शेर से नफ़रत करना अनिवार्य है? उसी तरह से सोचिए कि क्या किसी विचार को समाज में,दुनिया में फैलाने के लिए किसी से नफ़रत करना अनिवार्य है? ज़रा ठहर कर इस बात पर विचार कीजिएगा कि प्रेम जो मात्र ढाई आखर से बना है उसे जीवन में जीना जितना आसान लगता है उतना आसान है नहीं पर नामुमकिन तो बिलकुल भी नहीं। हम जब इस राह में चलना शुरू करते हैं तो असल में हम ख़ुद से यानि अपने अहं और पहचान से जूझ रहे होते हैं जो हम पर हावी रहती है । हो सकता है जब हर शख़्स इस पर विचार करना और जीना शुरू करेगा तो प्रेम की ताक़त का एहसास होगा।

इस रास्ते पर चलने के लिए हमने कोशिश शुरू की है हम जा रहे हैं उन लोगों की खोज में जो श्रम से चमकते-दमकते आभासी दुनिया से इतर असल दुनिया में जीते हैं। जहां श्रम के पसीने से आसपास की आबोहवा में एक अजब हलकापन है जो हमारे शहरी जीवन से गायब है। इसी क्रम में हमारी मुलाकात हुई है मानको महाली से।

मानको महाली

मानको महाली लिपिगुट्टू में रहती हैं। बाड़ से घिरे घर में घुसते ही बड़ा कच्चा लिपापुता अहाता, बगल में छोटा सा पोखर। एक पक्का छोटा घर और उससे सटा पुराना कच्चा घर। जैसे ही प्रवेश किया वहीं खाट खींच कर बैठ गए जिसकी अनुभूति विस्मृत सी थी। चेहरे पर सहज निश्छल मुस्कुराहट से दमकती मानको ने पहले तो खड़े होकर ही बात करना शुरू किया, जब उनसे कहा कि आप भी बैठिए तो एक कुर्सी लेकर आईं और यह आग्रह कि खाट छोड़ हम कुर्सी में ही बैठें। बहरहाल वो बात करना शुरू की। श्रम करती स्त्री को देख हम उनकी उम्र का अंदाज़ नहीं लगा सकते तो सहज जिज्ञासावश उनकी उम्र पूछ ली और उनका जवाब सुन लाजवाब हो गए, मानको ने कहा 40 या 50 जो मानना है मान लो। ज़रा देर के लिए भी यह जवाब हम किसी को सहजता से नहीं दे सकते।

आँगन में बांस की बनीं भांति-भांति की टोकनियाँ,सूप और झाड़ू बाज़ार जाने की प्रतीक्षा में थे। वे इसे हलदीपोखर,पोटका, कालिकापुर के बाज़ार में सड़क किनारे बेचती हैं। संथाली में धान रखनी वाली बड़ी टोकनी को कहा जाता है डिल्ली, वहीं उसके छोटे आकार को टूपले कहा जाता है। सूप को हाटा, झाड़ू को जोनो, टोकनी को खाँची, हँडिया (चावल का किण्वित द्रव्य) बनाने के लिए तिकोनी टोकनी को हड़िया चाला, छोटी टुकनी को टुनकी। जब बांस से बनें सामानों को वे संथाली में बता रही थी तब यह भी पता चला कि संथाली और महाली संथाली में कुछ शब्दों का अंतर होता है जैसे हर क्षेत्र की हिन्दी में हम अंतर समझ जाते हैं। इसी क्रम में जब उनसे पारंपरिक व्यंजनों के बारे में पूछा तो उन्होंने पीठा के कई प्रकार बताए, जैसे- जिल पीठा (चावल आटा घोल से जो छिलका या चीला बनता है), डंबू पीठा (मटके में ऊपर बांस की खपच्ची से जाली बना उस पर पैरा/पुआल रख गूँथ हुए चावल आटे की लोई रखी जाती है और उसके ऊपर भी बिल्कुल इसी तरह से बांस की जाली और पैरा से ढँक दिया जाता है, मटके में पानी भरा रहता है जिसे चूल्हे में चढ़ा कर भाप में पकाया जाता है ), छोर पीठा के अलावा लेटटो का ज़िक्र किया जिसे दरदरे अरवाँ चावल की बिरयानी कह सकते हैं पर यह अपने नाम के अनुरूप थोड़ा गीला रहता है।

यह लिखते हुए लग रहा है कि किसी के साथ इतना सरल कब पेश आये हैं हम शहरी लोग कि कोई बात करे तो इतनी ऊष्मा और ऊर्जा से बतिया लें, जान-पहचान में जब यह मुमकिन नहीं, अनजान लोग तो कल्पनातीत हैं।

मानको कभी स्कूल नहीं गईं पर अपनी संस्कृति से जुड़ी हर तरह की बातों पर अपना स्पष्ट मत रखती हैं और बेबाकी से अभिव्यक्त करती हैं। आदिवासी समुदाय का लगाव अब शहरी और बाज़ार की चमक-दमक में डूब रहा है जिसकी वजह से पारंपरिक त्योहारों के स्वरूप में तो फर्क पड़ ही रहा है, कला रूप भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। पारंपरिक वाद्य माँदल बजाते युवा अब आम नहीं रह गए हैं, वे कानफोड़, एकरस शोर भरे संगीत से स्वयं को जोड़ रहे हैं। सांस्कृतिक आदान-प्रदान होना ज़रूरी है पर यह किन शर्तों और समझौतों पर हो रहा है इसकी पड़ताल करने और नवाचार के साथ परंपरा के चलने के लिए संस्कृतिकर्मियों को आगे आने की आवश्यकता है। मानपुर बड़ा बस्ती में जन्मीं मानको अपने जीवन में यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से महसूस कर रही हैं।

बाज़ार हम सबको एक जैसा सोचने,बना देने के लिए अपनी मशीनरी के साथ मौजूद है, हमें सतर्क होने की आवश्यकता है। श्रम को मशीन में तब्दील कर देने की कोशिश को हम कैसे बचा पाएं, सहेज पाएं और आगे ले जा पाएं इसकी कोशिश भी है ढाई आखर प्रेम की सांस्कृतिक यात्रा। यह बात बड़ी लग सकती है पर सच्चाई है कि बड़े सपनों को पूरा करने चलना पड़ता है और हम इसी विश्वास के साथ चलने के लिए तैयार हैं जिसमें हम प्रेम और शांति के संदेश के साथ श्रम से जुड़े लोगों से बात करेंगे और उनसे उनके खानपान,रहन-सहन, गीत-संगीत, वेश-भूषा के बारे में कुछ न कुछ नया जानेंगे जो अभी हर शहर के एक से लगने वाले बाज़ार से अलग रंग लिए होगा।

 

मानको से मिलकर यही लगा कि प्रकृति के हरे रंग के साथ वो जीवन का कितना सुंदर तादात्म्य बनाए हुए हैं। वे घर में अकेली कमाने वाली स्त्री हैं। उनकी सास, पति, पुत्र, बहू और उनका पोता उन पर आश्रित हैं। कमाऊ स्त्री होने के बाद भी घर के कामों में लगे रहना और घर चलाने ने निश्चित ही उन्हें यह व्यक्तित्व दिया पर यह भी सवाल उमड़ रहा है कि मिलकर काम करने की संस्कृति कब उनसे छूट गई?

हो सकता है आप तक पहुंचाने के लिए मुझ मध्यस्थ की भाषा पढ़ते समय उतनी प्रवाहमय न लगे पर मानको को सुनते हुए लग रहा था कि ये उनका अनुभव ही है जो उनकी अभिव्यक्ति में बाधा नहीं बनता। यह लिखते हुए प्रसन्ना को याद करना, उन्हें दर्ज़ करना ज़रूरी हैं जो निरंतर जन-संवाद, श्रम और प्रेम को प्रचारित-प्रसारित करने को अपना जीवन अभ्यास बना चुके हैं। अगर यह यात्रा नहीं होती और इसके होने में छिपे मूल्यों को समझ नहीं पाती तो परिश्रमी मानको तक नहीं पहुँच पाती। मानको तक पहुंचाने के लिए संथाली थियेटर के युवा साथी रामचन्द्र मार्डी और उर्मिला हाँसदा का दिल से शुक्रिया !!

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