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कबीर का मार्ग, वही पथ है

• अर्पिता •

कहा गया है ‘महाजनो येन गतः स पंथा:’, यानि महापुरुष जिस मार्ग पर चले वही पथ है, वही रास्ता है। हम भी उसी रास्ते पर चलने के लिए तत्पर हैं। चलने वालों में न जाने कितनी बिरादरी के लोग साथ चलेंगे। ‘बिरादरी’ को यहाँ श्रम और कला से जोड़ कर देखा जाए। इस तरह हमारे आसपास मौज़ूद लेखक, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, सिलाईकार, बर्तनकार, कुम्हार, चर्मकार, सफ़ाईकर्मी, संगीतकार, रूप-सज्जाकार, गीतकार, गायक-गायिका, नर्तक-नर्तकी, अभिनेता-अभिनेत्री, किसान, मजदूर, बच्चे, स्त्रियाँ, पुरुष, एलजीबीटीक्यू, ट्रांसजेंडर, आदिवासी और जाने ही कितनों को हम मिलेंगे जब उन तक चलकर जाएंगे। चलने में शामिल होंगी जीवन की वे ध्वनियाँ जो हमें सुनाई नहीं देती, समझ नहीं आतीं, हम तक पहुँच नहीं पातीं। इस नहीं पहुँच पाने की पीड़ा कबीर बूझते थे तभी न वे लगातार श्रम करते गाते थे। गुनने-बुनने की उनकी कला अद्भुत थी तभी वे उनकी आवाज़ बने जिनकी कोई नहीं सुनता था। आज भी हम कबीर को यों ही नहीं गा रहे हैं। हमें पता है बिसुरों की सुध लेने का साहस और हिम्मत हममें कबीर ही भरेंगे।

कबीर ने कहा है –
तेरा मेरा मनवा कैसे एक होई रे
मैं कहता हूँ आँखन देखी
तू कहता कागद की लेखी

कबीर की इसी दृष्टि को जीते विजयदान देथा उर्फ़ बिज्जी ने राजस्थानी में एक कहानी लिखी है ‘दूजा कबीर’, जिसका हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। पर बिज्जी ख़ुद यह स्वीकारते हैं कि मूल राजस्थानी कथा में ही इसका आनंद उठाया जा सकता है, अगर इसका अनुवाद वे स्वयं भी करेंगे तो कहानी के लोक की वो तासीर नहीं रह जाएगी जो राजस्थानी में है। बहरहाल इस कहानी का ज़िक्र करने के पीछे यही मूल है कि इसमें बिज्जी ने कबीर से दो शानदार बातें कहलवाई हैं। एक – ‘ज़रूरत होते हुए भी जिनमें इन वस्तुओं को खरीदने की क्षमता नहीं है, मेरी कारीगरी उन लोगों के लिए है।’ दूसरी जगह कबीर ने कहा कि ‘किसी कंबल या शॉल का महत्व हीरों के बदले बिकने में नहीं है, जाड़े में ठिठुरते इंसान की ठंड दूर करने में है।’ यह संवाद कबीर ने राजा को कहा है और बोला कि राजा मेहनत के पसीने का मोल नहीं जानते। यहाँ इस बात पर ज़ोर है कि किसी चीज की महत्ता तभी है जब वह ज़रूरतमंद के काम आए पर दुनिया के इस रूप को हमने अपने लालच से बदल डाला है। आज बिना ज़रूरत भी हम बाज़ार के साथ कदमताल कर रहे हैं और अपनी संवेदनाओं और प्रेम के तंतुओं को ढीला करके अपने जीवन को दांव पर लगाए हैं। कबीर ने ज़रूरत को जीवन से जोड़ा और श्रम को तवज्जो दी। कबीर के इसी दर्शन को जीने की कोशिश हम भी कर रहे हैं और दूर-दूर के लोगों तक हाथों से बुने गमछे के बहाने उन बुनकरों की सुध लेने की चाह है ढाई आखर प्रेम जत्था का प्रतीक ‘गमछा’, जिसकी वजह से हम अपने आसपास गायब हो चुके बुनकरों के बारे में जान पाएंगे और समझ पाएंगे श्रम के छिनने का दर्द।

आज के समय में यह गजब की विडंबना है कि पौष्टिक भोजन का निबाह मुश्किल है पर कपड़ा हर फैशन का, हर रेंज में बाज़ार में उपलब्ध है। आज संभावना है कि हर तन पर कपड़ा मिल जाएगा पर हर तन में भरपेट भोजन मुश्किल है। मशीनों ने प्रदूषण के साथ विकास का नया जुमला हमें पढ़ा दिया और परदे के पीछे बहुतों की रोजी-रोटी छीनने के हुनर को माँज लिया। विडंबना है कि हम भी भूले हुए लोग बन गए। जो पढ़ाया उसे पढ़ लिया, भूल गए कबीर, रैदास, नानक की बातें।

हमारी सामूहिक भूल के लिए हम चल रहे हैं ‘ढाई आखर प्रेम’ की यात्रा में उन लोगों के पास जो श्रम से सजी अपनी दुनिया से जुड़े हैं। गमछे के बहाने हम सभी को याद दिला रहे हैं कबीर के जीवन को। हमारे लिए कबीर सिर्फ श्रम करके गाने वाला बुनकर नहीं है बल्कि पूरी मानवता की नियति और उसके सम्मुख खड़े साहस का प्रतीक है।

 

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