(अभिषेक अंशु इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ के युवा कवि-कलाकार हैं. मध्य प्रदेश में ढाई आखर प्रेम जत्था में वे शामिल थे.)
मध्यप्रदेश में ढाई आखर प्रेम-राष्ट्रीय सांस्कृतिक जत्था के लिये नर्मदा घाटी के गांवों को चुना गया था। बड़वानी, धार और खरगोन जिले का ये क्षेत्र विकास के नाम पर बनाये गये विशाल बांधों और उसकी कीमत के तौर पर उजाड़ दिये गये सैंकड़ों गांवों वाला इलाका है। पिछले 38 साल से जल, जंगल ,जमीन और विस्थापितों के पुनर्वास के लिये चलाये जा रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन की जमीन भी यही है। हमारी यह यात्रा जन संघर्ष के सेनानियों के लिये एक सांस्कृतिक अभिवादन सरीखी रही। साथ ही हम सभी संस्कृतिकर्मियों के लिये सत्ता की जनविरोधी नीतियों, क्रूरतापूर्ण दमन और उसके विरुद्ध संघर्षरत एक महत्वपूर्ण जनांदोलन को करीब से जानने और समझने का अवसर भी सिद्ध हुआ।
1: नर्मदा बचाओ आंदोलन और उसके सभी साथियों को सलाम
यात्रा के दौरान पूरे चार दिन हम सबकी मेजबानी नर्मदा बचाओ आंदोलन के साहसी और प्रतिबद्ध साथियों ने की। मुकेश भाई, वाहिद भाई, राजा भाई, भगवान भाई, कमलू दीदी तथा अन्य साथियों की भूमिका रेखांकित किये बिना यात्रा की बात अधूरी रहेगी। जिस तरह उन्होंने हमें आंदोलन प्रभावित गांवों का दौरा कराया, सरकारी षड्यंत्रों और दमन के वीभत्स चित्र दिखाये उसने हमारी मध्यवर्गीय चेतना और संवेदनाओं को झकझोर डाला। अड़तीस सालों से चल रहे इस जनांदोलन की भूमिका और इसकी सफलता हमें आशान्वित करती है तथा जन संघर्ष में हमारी आस्था को और दृढ़ करती है। साथ ही आंदोलन के साथियों ने जिस तरह से हमारे ठहरने, खाने-पीने, घूमने व अन्य आवश्यकताओं का ध्यान रखा वह अविस्मरणीय अनुभव है।
मुझे कमलू दीदी ने बहुत प्रभावित किया। लगभग 60 वर्ष से अधिक की युवा कमलू दीदी नर्मदा बचाओ आंदोलन की पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं। आँखों पर चश्मा चढ़ाये और कमर में पट्टा बांधे हुए वे जब दृढ़ता और उत्साह भरे नारे लगाती हैं और भाषण देती हैं, तो देखते ही बनता है। मात्र पांचवी कक्षा तक पढ़ी हुई कमलू दीदी सरकारी बेईमानियों, दमन और पुनर्वास नीतियों की तीखी आलोचना करते हुए लंबा भाषण देने की क्षमता रखती हैं। वे 1985 में जब आंदोलन प्रारंभ हुआ था तभी पारिवारिक व सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ती हुई आंदोलन में शामिल हो गई थीं। आंदोलन के चार दशकों में वे कई बार जेल जा चुकीं, कई बार पुलिस का लाठीचार्ज और हवालात का थर्ड डिग्री टॉर्चर झेल चुकी हैं। अनगिनत लंबे उपवासों में मेधा पाटकर जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर डटी रही हैं। चक्का जाम, निषेधाज्ञा उल्लंघन, शासकीय कार्य में बाधा तथा अन्य धाराओं में कितने केस दर्ज हैं, उन्हें खुद याद नहीं रहता।
कमलू दीदी बड़वानी में आंदोलन के कार्यालय में ही रहती हैं। गांव-गांव जाकर आंदोलन की रचनात्मक गतिविधियों को कार्यान्वित करती हैं। उनकी एक बेटी है जिसका कई साल पहले विवाह हो चुका है, नाती-पोते उच्च शिक्षा पा रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें अपने जीवन से संतोष है। कहती भी हैं कि अगर आंदोलन से न जुड़ी होती तो सारा जीवन एक हाथ के घूंघट में चौका-चूल्हा करते हुए ही निकल जाता। उनके मन में आंदोलन और मेधा दीदी के प्रति गहरी कृतज्ञता और सम्मान का भाव है। जब तक देह में शक्ति है आंदोलन के लिये ही कार्य करना चाहती हैं। और हां वे नियमित रूप से डायरी जरूर लिखती हैं।
कमलू दीदी एक जीता जागता उदाहरण हैं कि एक जन आंदोलन किस तरह लोगों और समाज को जागरूक करता है, उन्हें गढ़ता है।
2: सत्ता की उत्सव धर्मिता और आम लोगों का जीवन
ये उजड़े हुए घर-द्वार बड़वानी जिले के जांगरवा और धार जिले के इक्कलवारा गांव के हैं। इसी साल 16 सितंबर से पहले तक इन घरों और गांवों में लोग रहते थे। यहां भरी पूरी गृहस्थी बसती थी, लोगों के साथ मवेशी भी रहते थे और कटाई के बाद फसल का भंडार भी होता था। नर्मदा परियोजना के इंजीनियरों, अधिकारियों ने इन गांवों को डूब से बाहर सुरक्षित बताया था।
पिछली 16-17 सितंबर को जब पूरा मीडिया ओंकारेश्वर में शंकराचार्य प्रतिमा की स्थापना और प्रधानमंत्री के जन्मदिवस पर सरदार सरोवर बांध को पूरा भरे जाने की रोमांचक खबरों से गर्व का उन्माद जगा रहा था, ठीक तभी ये गांव डूब रहे थे। 16 सितंबर को शंकराचार्य की प्रतिमा स्थापना के बाद ओंकारेश्वर बांध के सारे गेट बिना सूचना, चेतावनी के खोल दिये गये और प्रधानमंत्री का जन्मदिन मनाने के लिये सरदार सरोवर बांध को पूरा भरने के उद्देश्य से उसके गेट बंद रखे गये। परिणाम ये हुआ कि अब तक सुरक्षित कहे जाने वाले दर्जनों गांवों में एकाएक जल भराव हो गया। कुछ ही घंटों में हजारों मकान, संग्रहित फसलें, हजारों मवेशी, बोवनी किये हुए खेत सब नर्मदा की बाढ़ में डूब गये। हजारों लोगों ने भागकर सुरक्षित स्थानों पर शरण ली, कई जानें भी चली गईं। जब जीवन पर संकट हो तब कोई घर-गृहस्थी का कितना सामान समेट सकता है। जरूरी सामान की पोटलियां लादे हजारों स्त्री-पुरुष अपने बच्चों समेत बरसते पानी में खड़े हुए थे।
ये कोई प्राकृतिक बाढ़ नहीं थी, इसे मानव निर्मित आपदा कहना भी ठीक नहीं होगा। ये सीधे तौर पर “शासन निर्मित आपदा” थी, जिसका खामियाजा हजारों लोगों नो भुगता। सत्ता के उत्सव ने हजारों मवेशियों, हजारों क्विंटल अनाज, हजारों लोगों के घर-गृहस्थी और कई जिंदगियों की बलि ले डाली। इन गांवों में फैला दमघोंटू सन्नाटा और उदासी अपनी बर्बादी को स्वयं व्यक्त कर रही है।
ये भीषण त्रासदी म.प्र. के बड़वानी, धार और खरगोन जिलों के जांगरवा और इक्कलवारा जैसे दर्जनों गांवों के साथ घटी। बाद में जब सरदार सरोवर पूरा भर गया तब उसके गेट खोलने पर गुजरात के नर्मदा और भरूच जिले के दर्जनों गांवों का भी यही हाल हुआ, वहां भी बर्बादी या ऐसा ही तांडव हुआ।
काश सत्ता की उत्सव धर्मिता देश की जनता और उसके जीवन के प्रति थोड़ी सी संवेदनशील भी होती।