02 अक्टूबर 2023 | मुंबई.
गांधी जयंती और वाईकम सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के अवसर पर मुंबई इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ तथा इप्टा केरल मुंबई चैप्टर के संयुक्त आयोजन में ‘वाईकम सत्याग्रह और उसकी प्रासंगिकता’ विषय पर भूपेश गुप्ता भवन, प्रभादेवी मुंबई में सेमिनार का आयोजन किया गया। इप्टा केरल मुंबई चैप्टर के सचिव संजय पी आर ने वाईकम सत्याग्रह से पूर्व की जाति-व्यवस्था के उन्मूलन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, वाईकम सत्याग्रह के इतिहास में जितनी रोशनी है, उतना ही अंधेरा भी है। अंधेरा इसलिए कि, वाईकम सत्याग्रह में जाति-उन्मूलन के लिए जो लड़ाई लड़ी जा रही थी, वह बाद में सिर्फ मंदिर-प्रवेश तक सीमित हो गई। जाति-व्यवस्था आज भी बनी हुई है। इसके प्रतीक ‘सेंगोल’ को राजदंड के रूप में फिर स्थापित किया जा रहा है। वाईकम का सत्याग्रह यही सीख देता है कि ब्राम्हणवाद का वर्चस्व आज भी है, जिससे संघर्ष जारी है।
यह सत्याग्रह तथाकथित निम्न जातियों के लोगों के लिए वाईकम के महादेव मंदिर के आसपास के रास्तों पर चलने और मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध समाप्त करने के लिए किया गया था। परंतु तथ्य यह भी है कि 1924 हुए इस सत्याग्रह को समाप्त करने का महात्मा गांधी ने आग्रह किया था। उनका उस समय कहना था कि यह मामला हिंदू धर्म का आंतरिक मामला है। मगर सत्याग्रह नहीं रूका। बाद में महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से 1925 में त्रावणकोर की रानी के साथ हुए समझौते में मंदिर के आसपास के तीन रास्ते सबके लिए खोल दिये गये। बाद में गांधी जी के विचारों में भी परिवर्तन हुआ। इस आंदोलन में टी. माधवन, के पी केशव मेनन, जॉर्ज जोसेफ, पेरियार ई वी रामास्वामी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अविनाश कोल्हे ने कहा, आज एक देश, एक इलेक्शन का नारा दिया जा रहा है, परंतु आज से सौ साल पहले ‘एक धर्म, एक भगवान’ की तर्ज़ पर नारायण गुरु के नेतृत्व में नए मंदिर बनाए गए, जो सभी जातियों के लिए खुले थे। जाति-व्यवस्था के उन्मूलन जैसा विचार, समानता का विचार हमारे देश में नहीं था। जोतीबा फुले, बाबासाहेब आंबेडकर जैसे लोगों ने लाया। आंबेडकर ने नासिक में कालाराम मंदिर सत्याग्रह किया था। आज़ादी के बाद ब्राम्हणवाद के विरोध में ही तमिलनाडु में द्रविड मुन्नेत्र कड़गम की स्थापना हुई। मंदिर में जाने का अधिकार सबको मिलना ही चाहिए, चाहे व्यक्ति मंदिर जाए या न जाए। अविनाश कोल्हे ने अन्य देशों में भी रंगभेद जैसी विसंगतियों को रेखांकित किया।
इप्टा की राष्ट्रीय सचिव मंडल सदस्य उषा आठले ने जाति-व्यवस्था के विरोध में भक्ति और सूफी परम्परा को स्पष्ट किया। भारत में वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के ‘कर्मणा’ से ‘जन्मना’ होने की यात्रा का विवरण देते हुए, उसमें पवित्रता-अपवित्रता की अवधारणा की अमानवीयता को रेखांकित किया। बा्रम्हणवाद ने निम्न वर्ण के लोगों को जानबूझकर गंदे और अमानवीय श्रम तक सीमित रखकर उनका आर्थिक-सामाजिक दमन किया। दक्षिण भारत में इसके खिलाफ छठवीं शताब्दी में अलवार और नायनार सम्प्रदायों ने जाति-व्यवस्था और सवर्ण वर्चस्ववाद के विरुद्ध आवाज़ उठाई, जिसे बारहवीं सदी में बसवण्णा के नेतृत्व में लिंगायत और वीरशैवों ने आगे बढ़ाया। उत्तर भारत में तेरहवीं सदी में नाथ सम्प्रदाय, सिद्ध सम्प्रदाय और जोगी सम्प्रदाय ब्राम्हणवादी ढाँचे के विरोध में मुखर हुए। मध्यकाल में समाज में वर्ण-व्यवस्था के अनुसार विभाजन स्पष्ट था। ब्राम्हण और क्षत्रिय वर्ण के लोग ही हिंदू धर्म और संस्कृति के कर्ताधर्ता थे। तथाकथित निम्न वर्ण और जातियाँ, जिन्हें शूद्र और अतिशूद्र कहा जा सकता है, सिर्फ हर तरह के शारीरिक श्रम कर जीवनयापन करती थीं। उस काल के अधिकांश संत कवि दस्तकारी और शिल्पकारी जैसे रचनात्मक श्रम से जुड़े हुए थे और धर्म के माध्यम से ही वे समाज को सुधारना चाहते थे। मीराबाई, कबीर, रैदास, रहीम, गुरु नानक, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि सभी भक्त कवि जातिगत विषमता को कहीं न कहीं तोड़ते दिखाई देते हैं। इनके गीतों को आज भी ज़्यादातर निम्न जातियो के लोग गाते हैं।
इसी तरह महाराष्ट्र का वारकरी संप्रदाय भी सिर्फ विट्ठल नामक देवता तक सीमित भक्ति-पंथ नहीं था, बल्कि उस समय तक प्रचलित शैव संप्रदाय, सूफी, नाथ, दत्त, चैतन्य, आनंद आदि पंथों के उदार, विचार करने वाले लोगों को समाविष्ट करने वाला सर्वसमावेशी उपासना-पीठ था और आज भी है। वह एक प्रभावशाली सांस्कृतिक केन्द्र बन गया है। इसमें वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म, लिंग, उम्र, पद-प्रतिष्ठा जैसे किसी भी विषमता के लिए स्थान नहीं है। परंतु जैसा नरेन्द्र दाभोलकर कहते हैं कि इस बात का पालन सिर्फ पंढरपुर वारी के एक महीने में ही होता है। परंतु जब सभी वारकरी अपने-अपने घर लौटते हैं, तो वे फिर उसी जाति और वर्ण-व्यवस्था के भँवर में पड़ जाते हैं। यह खेद का विषय है कि भारतीय लोकतंत्र की स्थापना के पहले और बाद में भी राजनीति में ‘जाति’ की महत्वपूर्ण भूमिका बतौर वोट बैंक के उपकरण के रूप में रही, जिसने जातियों और उनके बीच की खाई को चौड़ा करने का काम किया है।
सेमिनार का संचालन चारुल जोशी ने किया तथा आभार प्रदर्शन किया निवेदिता बाँठियाल ने। निवेदिता ने सांस्कृतिक संगठनों द्वारा 28 सितम्बर से 30 जनवरी 2024 तक की जाने वाली ‘ढाई आखर प्रेम’ पदयात्रा की जानकारी दी तथा सभी को 25-26 जनवरी 2024 को मुंबई में आयोजित पदयात्रा में सम्मिलित होने का आवाहन किया। उल्लेखनीय है कि राजस्थान प्रदेश में ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक पदयात्रा 28 सितम्बर से 02 अक्टूबर सम्पन्न हो चुकी है। सेमिनार में मुंबई के अनेक जन-संगठनों के साथी उपस्थित रहे।