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प्रेम का रंग दिनों-दिन पक्का

  • अर्पिता.

प्रेम के तानेबाने कभी कमजोर नहीं पड़ते बल्कि प्रेम का रंग दिनों-दिन पक्का होता चलता है इसका अनुभव तब होता है जब हम बरसों से जानने वाले किसी शख़्स से अचानक मिलते हैं। हमारे आसपास बहुत से ऐसे ख़ास लोग मौजूद हैं जिनकी बदौलत दुनिया को बेहतर बनाने का ख़्याल कभी कमज़ोर नहीं पड़ता, इनमें से एक है थियेटर के जानेमाने प्रोबीर दादा।

आज सुबह जब दादा का फोन आया तो लगा आज का दिन बन गया। उनसे मिलना, उन्हें सुनना ख़ुद को चार्ज करना हुआ क्योंकि हम सभी अभी ढाई आखर प्रेम की यात्रा की तैयारियों में जुटे हुए हैं और ऐसी शख़्सियत से मुलाकात हिम्मत और साहस से भरती है। उन्होंने कल ही लकीजी गुप्ता को इस यात्रा का वीडियो संदेश दिया है और हमसे वादा किया है कि वो हमारे साथ कहीं न कहीं यात्रा में जुड़ेंगे। आज जमशेदपुर में हमने उन्हें कबीर को याद करते हुए उन्हें गमछा ओढ़ाया। बहुत शुक्रिया दादा।

वे लोग जो ढाई आखर प्रेम की यात्रा के बारे में नहीं पढ़े, देखे या सुने, उनके लिए कुछ बातें करना चाहती हूँ।

हम प्रेम को जीने, अभ्यास करने और जन-संवाद करने के लिए 28 सितंबर 2023 से राजस्थान के अलवर से “ढाई आखर प्रेम” की यात्रा शुरू करने जा रहे हैं जो 30 जनवरी 2024 तक लगातार चलेगी, दिल्ली तक। इस पदयात्रा में लोगों से संवाद होगा, उनसे उनकी दुनिया के बारे में हम जानेंगे और समझेंगे कि आमजन किन मुश्किलों से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहा है।

एक कलाकार जो इनके दर्द को मंच में जीना चाहता है, उसे हम पढ़कर और अपनी संवेदनाओं को द्रवित कर समझते और अभिनीत करते हैं। पर जब पैदल चलकर हम उनके पास जाएंगे तो हमें अनगिनत कहानियाँ मिलेंगी जो अभी तक कहीं दर्ज ही नहीं हुईं, न किताबों में दास्तान के रूप में, न किसी कविता में और न ही किसी अन्य कला रूप में। हमें अपने लोगों की भांति-भांति की संस्कृति जानने-समझने का अवसर मिलेगा, बहुत कुछ सीखने मिलेगा। नए गीत, संगीत, लोक नृत्य और तमाम लोकाचार से हम शहरी लोग परिचित होंगे, सही मायनों में हम भी इंसान बनने की तरफ कुछ कदम बढ़ा पाएंगे। जब तक मुश्किलों से दो-चार नहीं होंगे तब तक इंसानियत के जज़्बे के सुर्ख़ रंग को ओढ़ नहीं पाएंगे, यह यात्रा एक थियेटरकर्मी की सच्चे मायनों में कलाकार बनने की यात्रा होगी जिसमें हम निश्चित रूप से अपने व्यवहार और जीवन में बदलाव ला पाएंगे।

एक जुमला बहुप्रचलित है जिसे कभी बचपन और नासमझी में इस्तेमाल भी किया है कभी मज़ाक में, हो सकता है आपने भी किया हो कि “मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” तो अब इसे आजमा कर देख लेने का वक़्त आ गया है कि इसमें कितनी सच्चाई है? इस जुमले को किसने प्रचारित किया और क्यों किया? असल में जिस रास्ते में सच्चाई चलती है वो राह सत्ता के आकांक्षी लोगों के लिए आसान नहीं सो वे दुष्प्रचार का ऐसा रास्ता अपनाते हैं कि भीड़ उसके पीछे हो ले। इस भीड़ को दोष नहीं दे सकते क्योंकि भीड़ भेड़चाल पर विश्वास करती है, उसका अपना कोई चेहरा नहीं होता पर उनका चेहरा होता है जो रोज़ मेहनत करके, श्रम करके अपना जीवनयापन करते हैं। उन चेहरों में जीवन के अनुभव की तासीर महसूस करने और उन्हें सुनने के लिए हम उनके पास जाएंगे। इसमें आप भी शामिल हो सकते हैं, इसके लिए आपको करना होगा थोड़ा मशीनी श्रम, हमारी वेबसाइट में जाकर रजिस्टर करना होगा और यह भी बताना होगा कि आप किस जगह में इस यात्रा में शामिल होना चाहते हैं।

हमारे साथ दुनिया में प्रेम की भाषा और प्रेम को जीवन में व्यापक बनाने के लिए बहुत से जानेमाने लोग जुड़े हैं जिनकी प्रतिबद्धता को हमारा विनम्र अभिवादन।

 

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