|| श्रम को जीते लोग -2 ||
• अर्पिता •
प्रेम में बड़ी ताकत होती है जिसके आगे ताकतवर हुक्मरान की भी नहीं चलती अगर वे गर्व, घमंड से भरे होते हैं। प्रेम मनुष्यता के साथ विनम्रता भी नवाज़ती हैं और हमें जटिलता से सरलता की ओर ले जाती है। कबीर ने कहा है:
प्रेम न बाड़ी उपजे , प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रुचे सीस देई ले जाए
यह दोहा मनुष्य के अंतस में बसे अहं को चुनौती देता है। ज़रा ठहर कर इस बात पर विचार कीजिएगा कि प्रेम जो मात्र ढाई आखर से बना है उसे जीवन में जीना जितना आसान लगता है उतना आसान है नहीं पर नामुमकिन तो बिलकुल भी नहीं। हम जब इस राह में चलना शुरू करते हैं तो असल में हम ख़ुद से यानि अपने अहं और पहचान से जूझ रहे होते हैं जो हम पर हावी रहती है । हो सकता है जब हर शख़्स इस पर विचार करना और जीना शुरू करेगा तो प्रेम की ताक़त का एहसास होगा।
इस रास्ते पर चलने के लिए हमने कोशिश शुरू की है। हम जा रहे हैं उन लोगों की खोज में जो श्रम से चमकते-दमकते आभासी दुनिया से इतर असल दुनिया में जीते हैं। जहां श्रम के पसीने से आसपास की आबोहवा में एक अजब हलकापन है जो हमारे शहरी जीवन से गायब है। इसी क्रम में हमारी मुलाकात हुई है धोबनी गांव (झारखण्ड) की सीमा बास्के से जो सहज मुस्कुराहट से भरी अपनी दुनिया में आदिवासी जीवन के लोकज्ञान को अपनी ताकत बनाने में लगी हुई हैं। इनके साथ कई और स्त्रियाँ भी जुड़ी हैं जो कामयाबी के शॉर्टकट की बजाय धीमे-लंबे रास्ते पर चल रही हैं और यही इनकी सबसे बड़ी खासियत है।
मात्र 42 वर्षीय इंटरमीडिएट पास सीमा के तीन बच्चे हैं जिसमें उनके दो बेटे नौकरी कर रहे हैं और एक बेटी की शादी हो चुकी है। उनके जीवनसाथी ट्रांसपोर्टिंग का काम करते हैं। धोबनी की सीमा के पिता सूदन मांझी और माँ पार्वती देवी निश्चित ही अपनी बेटी को इस तरह से संघर्षशील देखकर खुश होते होंगे, वे लगातार नई बातों को जानने और सीखने की उत्सुकता से भारी लगी।
आज के समय में हम आए दिन स्लोगन और विज्ञापनों में गाँव की ओर जाने की अपील के साथ ऑरगेनिक उत्पादों की धमक सुनते हैं, देख रहे हैं। इनकी शुद्धता को लेकर हम आश्वस्त भी रहते हैं क्योंकि ग्रामीण अंचलों में , विशेषकर आदिवासी अंचलों में अभी मुनाफे की दौड़ में शामिल यहीं है , साथ ही इनकी जीवन-शैली और संस्कृति दोनों में ही सामूहिकता और सहयोग की अंतर्धारा प्रवाहित होती रहती है जो इन्हें ईमानदारी और उसूलों में पक्का रखती है।
शहरी जीवन में वनोपजों की सीमित पहुँच और समझ बननी शुरू हुई है क्योंकि पूरा शहरी जीवन बाज़ार पर केंद्रित है जबकि गांवों में खेतीबाड़ी और जंगल से प्राप्त पहल-फूल, कांदा और जड़ी-बूटी से जीवन सहज चलता है। लोकज्ञान से भरपूर आदिवासी अभी भी अपनी क्षमताओं से पूरी तरह परिचित नहीं है। इस बात को झुठलाने में लगी हुई हैं धोबनी की सीमा जी। जो पहले जमशेदपुर में रहती थी पर फिर शहरी जीवन की सीमित सोच के दायरे से बेचैन होकर वापिस गाँव धोबनी आई और यहाँ मुख्य सड़क पर एक छोटी सी दुकान खोली जिसमें नाश्ता उपलब्ध रहता है।
पर सिर्फ पैसे कमाकर घर चलाना उनकी फितरत में नहीं है इसलिए विरासत में मिले ज्ञान और उसकी उपयोगिता को समझते हुए व्यंजन बनाना शुरू की, साथ ही औषधीय महत्व की चीजों को भी एकत्र कर लोगों तक पहुंचाने की कोशिश में लगी हैं। इस काम में डोमजूड़ी पंचायत की मुखिया अनीता मुर्मू ने भी इनका मार्गदर्शन किया हैं।
आज सीमा जी मणुआ और मशरूम से कुकीज़ बना रही हैं। जौ-बाजरा का लड्डू, कुसुम का तेल बना रही हैं। सीमा जी ने बातचीत में बताया कि धोबनी से लगे हुए जंगल में कुसुम का पेड़ लगा हुआ है, जिसके प्रयोग के बारे में आदिवासी समुदाय बेहतर जानता है पर इसे बड़े स्तर पर लोगों तक ले जाने की पहल से अपरिचित और उदासीन है। इस बात का ध्यान रख ही सीमा वनोपाजोन पर काम करने की शुरुआत की। अप्रैल-मई में कुसुम के बीज एकत्र कर सुखाकर इसका तेल निकालती हैं। इसका बीज प्रोटीन और ऊर्जा का अच्छा स्रोत है, इसका प्रयोग बालों के विकास में भी सहायक होते हैं। इसके फूलों का उपयोग डायरिया में करते हैं। हमारे देश में लाख उत्पादन में कुसुम का पेड़ का महत्व है। इसके अलावा वे महुआ बीनती हैं, सुखाती हैं, जामुन की गुठलियों का पाउडर, सहजन की पत्तियों को सुखाना जैसे कई काम करती हैं। झारखंड सरकार द्वारा लगाए गए जोहार मार्ट में ये अपने उत्पाद भेजती हैं।
इस तरह के रोजगार से सीमा जी 20 से 25 हजार महीने की आय कर लेती हैं, इसके अलावा वो मशरूम ट्रेनर भी हैं, इसकी ट्रेनिंग उन्हें कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा कराई गई है, यह एक सकारात्मक और ज़रूरी पहल है। बिना संसाधनों के ये लगातार काम में व्यस्त रहती हैं। इनकी आगे की योजना है कि मणुआ (रागी) की चाउमीन बना पाएं जो स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं डालेगी।
सीमा जी और उनके जैसी तमाम स्त्रियों के श्रम को और लोकज्ञान को हमारा जोहार !!
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