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गमछे में लिपटा ढाई आखर प्रेम

  • दिनेश चौधरी

प्रेम के ढाई आखर बेहद सरल हैं। इसे सीखने-पढ़ने के लिए किसी स्कूल जाने की जरूरत नहीं होती। इसके सबक लोगों को पल भर में याद हो जाते हैं। ऐसे लोग दुनिया में कम हैं जो प्रेम नहीं समझते। पृथ्वी अपनी धुरी पर इसी वजह से टिकी हुई है। कभी-कभी जरूर नफरती लोग सिर उठाने की कोशिश करते हैं, पर अंततः उनकी हार ही होती है। थक भी जाते हैं। मोहब्बत करना कुदरती फितरत है। कोई नफरत करे भी तो कितना करे! लियाकत जाफरी साहब कहते हैं –

मेरे दुश्मन मुझे सीने लगा ले
मैं नफ़रत करते-करते थक चुका हूँ

प्रेम करने पर प्रेम का इजहार भी जरूरी होता है। यहाँ बात उस प्रेम की नहीं हो रही है जिससे अपनी आधी कविताएँ-शायरी और सिनेमा वगैरह अटे पड़े हैं। यह वह प्रेम है जो एक इंसान को दूसरे से बगैर किसी भेद के करना चाहिए। जहाँ मजहब, सरहद, हैसियत वगैरह की कोई दीवार न हो। एक इंसान दूसरे को कमतर, कमजोर या अपने से अलहदा न समझे। पर बीते कुछ दिनों में यह हुआ है। बाज लोग अपने जाती फायदे के लिए एक इंसान को दूसरे के मुकाबिल खड़ा करने की कोशिशों में लगे हुए हैं। वे तरक्की नाम का गमछा लेकर आए थे। खोलकर बिछाया तो अंदर ढेर सारी नफ़रतें थीं। बाँटा और हमारी धन-दौलत, सुख-चैन को अपनी गठरी में बांध लिया।

गमछे के कई तरह के इस्तेमाल है। काँधे पर तौलिए की तरह रख सकते हैं। मुँहऔर बदन को पोंछ सकते हैं। सिर पर पगड़ी की तरह बाँध सकते हैं। कमर में लपेट सकते हैं। बच्चे धोती की तरह बाँध सकते हैं। दूध के पतीले में उबाल आये तो उसे झट उतार सकते हैं। नदी-तालाब में स्नान के बाद कपड़े सूखने तक लपेट सकते हैं। लाठी-चार्ज हो जाए तो दोनों हाथों से तानकर उसका वार झेल सकते हैं। कोरोना काल में मुँह में लपेट सकते हैं। बाहर निकलते हुए चना-चबेना या सत्तू के लिए टिफिन बॉक्स की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। यह फेहरिश्त बहुत लंबी है पर साबित हुआ कि गमछा बहुत काम की चीज है!

कबीर गमछे की बुनाई करते थे और प्रेम का सन्देसा बाँटते थे। मितव्ययी थे। पोथियाँ बाँचने के बदले ढाई आखर से ही काम चला लेते थे। उनका गमछा प्रेम के धागों से बुना हुआ होता था। वे पीर- फकीर -संत- औलिया थे। जाते-जाते अपना चरखा गाँधी बाबा को थमा गये। गाँधी ने अमन का गमछा तो बुना और बाँटा ही, इस चरखे में साम्राज्यवादियों के मंसूबों को ही लपेट लिया। यही चरखा अब प्रसन्ना के हाथों में है जो बैंगलुरु में शिमोगा के पास अपने ‘श्रमजीवी आश्रम’ में प्रेम के गमछे बड़े प्रेम से बुन रहे हैं। प्रसन्ना ‘इप्टा’ की सदारत भी करते हैं। यही ‘इप्टा’ शहीदे-आजम भगत सिंह के अगले जन्म-दिन से मोहब्बत बाँटने के लिए गाँव-गँवई की पदयात्रा पर निकल रही है। यात्रा की समाप्ति गाँधी की शहादत वाले दिन 30 जनवरी को दिल्ली में होगी। माफ करें, यात्रा समाप्त नहीं होगी, यह सिर्फ एक मुकाम होगा क्योंकि मोहब्बतों का सफर कभी खत्म नहीं होता।

मैंने गमछे के कामों की जो फेहरिश्त गिनायी थी, उसमें एक सबसे जरूरी काम तो छूट ही गया था! आप गमछे में लपेटकर अपनी मोहब्बतें भी बाँट सकते हैं, पर वह सिंथेटिक नहीं होना चाहिए। आपकी मोहब्बत भी सिंथेटिक हो जाएगी। नकली और नुकसानदेह। यह एआई का जमाना है। नकली अक्ल इंसान को मशीन बनाने में लगी हुई है। मशीनों में संवेदना नहीं होती। संवेदनहीन मशीन या इंसान प्रेम नहीं कर सकते। वे सिर्फ हुक्म की तामील कर सकते हैं और जरूरत पड़ने पर दुनिया को खत्म भी कर सकते हैं। आपके पास जो गमछा पहुँचेगा वह हथकरघे में बुना होगा। इप्टा के साथी आप तक पहुँचे तो उनसे गमछा खरीद लें। यह फायदे का सौदा है। बाकी तफ़सील आपको सही वक्त पर मिलती रहेगी।

* Sketch: Awdhesh Bajpai

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