ढाई आखर प्रेम का
ना पढ़ा ना पंडित हुए
बस जात धरम में
बंट गए कमबख्त मुए
बीज कहाँ अँकुआता
माटी ना थी
निर्गुण ज्ञान कहाँ समाता
थाती ना थी
राह सुझाते
संत खप गए
इनको ना सूझा
पर वो टप गए
अंत समय तक रहे जोड़ते
पर जोड़ ना था
घर खज़ाना तो भर गया
मन का पर तोड़ ना था
जितना जोड़ा कम रहा
अंत साँस तक ग़म रहा
रिश्तों ने साथ दिया नहीं
मोह मगर ना कम रहा
सब पढ़ सुनकर भी
मन से कुछ गुणा नहीं
हुई चदरिया तार तार
फिर भी कुछ बुना नहीं
लीक पीटते रहे सदा
जात धरम के रिवाज़ों की
मन व्यवहार रहे पुराने
बातें नए समाजों की
यूँ हमने जीवन पार किया
परिवर्तन का ना विचार किया
हमने पाँव पेट को मोड़े
मैं का खूब विस्तार किया
वो ढाई आखर ढाई रहा
आधा भी ना जोड़ सके
विज्ञान फांसी चढ़ गया
पर जाति ना तोड़ सके
संत वही भगवान वही
जो हमारे मन की कर दे
दान दहेज रिश्वत लूट
भंडारे से जायज कर दे
अपने जैसे हमने
अपने सब भगवान रचे हैं
सब अवगुण हमारे उनमें
कोई नहीं बाकी बचे हैं
– टेकचन्द