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Poetry/Tales

साधु और बिच्छू (लोक कथा)

ढाई आखर प्रेम की मूल भावना और उसके अपरिमित विस्तार को दर्शाती बचपन में पढ़ी एक कहानी मुझे याद आ रही है। साधु और बिच्छू की कहानी।

नदी में नहाते समय साधु ने जब पानी में बहते हुए एक बिच्छू को अपनी जान बचाने के लिए हाथ पैर मारते देखा तो उसे दया आ गई। उसने बिच्छू को अपनी हथेली पर उठाकर किनारे की सूखी भूमि पर रखना चाहा। हथेली पर आते ही बिच्छू ने जोर का डंक मारा। दर्द से तिलमिलाकर कर साधु ने हाथ झटका तो बिच्छू फिर से पानी में गिरकर डूबने उतराने लगा।

साधु ने फिर से उसे बचाने की चेष्टा की। बिच्छू ने फिर से डंक मारा और एक बार फिर वह पानी में जा गिरा। साधु बार-बार कोशिश करता रहा और हर बार बिच्छू ने डंक मारा।

पास नहा रहे एक व्यक्ति से यह सब देखा नहीं गया। उसने साधु से कहा कि वह व्यर्थ ही बिच्छू को बचाने की चेष्टा कर रहा है, जबकि बिच्छू उसकी परोपकार की भावना को समझ ही नहीं पा रहा है। उसे तो डूब जाने देना चाहिए।

साधु उसकी बात को अनसुना करके अपने प्रयास में लगा रहा। जब उसने सफलता पूर्वक बिच्छू को किनारे की जमीन पर डाल दिया तो खुशी से उसका चेहरा दमकने लगा। उसने मुड़कर उस व्यक्ति से कहा कि जब बिच्छू जैसा प्राणी अपने प्राणों के संकट में भी डंक मारने का अपना स्वभाव नहीं बदलता है तो हम मनुष्य दया, करुणा और प्रेम का अपना मूल स्वभाव कैसे बदल सकते हैं?

संकटकाल में भी प्रेम की भावना बनी रहे, तभी हम जन जन से सार्थक संवाद कर पाएंगे और एक दूसरे से जुड़ाव महसूस कर पाएंगे।

  • डॉ. कमलकांत
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