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‘पूर्वरंग’ | यात्रा के साथ यात्रा (भाग -4)

यात्रा संस्मरण: ढाई आखर प्रेम यात्रा, झारखंड पड़ाव

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प्रकृति जिस तरह हमें अपनी हरियाली की ज़द में लेती है, नीले-हरे-सिलेटी समंदर में फैले प्रकाश की आभा हमें चुंबकीय एहसास कराती है, वहीं नीला-आसमानी आकाश अपने साथ दूर चलने का आग्रह करता-सा महसूस करता है, कुदरत के ये सारे रंग गहरे और गहरे होते जाते हैं जब हम ढाई आखर प्रेम में जीवन को जी रहे होते हैं। यह कोई शायराना अंदाज़ नहीं बल्कि जी हुई सच्चाई है। प्रेम से पगे रास्ते हमें कहीं भी ले जा सकते हैं चाहें वो रास्ता दुरूह ही क्यों न हो। इस खरे सच को दुनिया में फैलाने-महकाने की कोशिश कोई नई नहीं है क्योंकि नफ़रत की आग में जलती मनुष्यता को बचाने के लिए कोई और उपाय वाजिब नहीं, मुमकिन नहीं।

लंबे समय से युद्धग्रस्त अशांत देशों की विभीषिका से पूरी दुनिया प्रभावित है जिसमें प्रेम-शांति की चाह के लिए अमन-पसन्द लोग प्रेम की पताका फहराते, सत्ता के घमण्ड में चूर अहं को अपने शांत श्वेत रंग में समेट लेना चाहते हैं। वह श्वेत रंग जिसमें बारिश की फुहार और सूरज की रौशनी में सतरंगी इंद्रधनुष की आभा उभरती है और हम सहज प्रफुल्लित हो इन पलों को जीने की कुंजी बना लेना चाहते हैं। इस कुंजी को लोग भूलते चले जा रहे हैं और सिमट रहे हैं ऐसे बाड़े में जिसमें भरा है आपसी द्वेष और नफरत का कोलाहल। इस कोलाहल में जीवन की विद्रुपताएं एक तरफ जहां जीवन-मूल्यों को नष्ट करती हैं तो दूसरी तरफ हमें तुच्छ से तुच्छतर बनाने की दिशा में ले जाती हैं। इसे दुनिया से दूर करने की एक कोशिश है सामाजिककर्त्ता और संस्कृतिकर्मी की जिसे नाम ही दिया ढाई आखर प्रेम सांस्कृतिक पदयात्रा। निश्चित ही संकट बड़ा है और हमारी ताकत छोटी पर छोटे-छोटे प्रयास ही आने वाले समय की इबारत लिखते हैं और इस विश्वास के साथ हम एकजुट हो चलने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों को जोड़ने, संवाद करने और उनसे सीखने, रिश्ता बनाने का सिलसिला 28 सितंबर 2023 को भगत सिंह के जन्मदिन से शुरू हुआ है।

यात्राएं हमेशा जीवन में कुछ जोड़ने का काम करती हैं इसलिए इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए क्योंकि इसी बदौलत हम अपने अनुभव-संसार को समृद्ध करते हैं। झारखंड पड़ाव की ढाई आखर प्रेम यात्रा की तैयारी में हमने लगभग रोज़ लोगों से मिलने का काम किया, बातें की, सुझाव लिए, जिसकी बानगी आपने पहले और दूसरे अंक में पढ़ी और आगे के अंकों में भी पढ़ेंगे।

यात्रा की तैयारी के दौरान भटिन में गांव के लोगों से मुलाकात

मुलाकात के इस दौर में स्थानीय प्रगतिशील लोगों ने दिल खोलकर यात्रा के लिए सहयोग किया। जैसा कि आप जानते हैं कि इस बार ढाई आखर प्रेम यात्रा में प्रेम और श्रम को हम साथ लेकर चल रहे हैं जिसमें कबीरी बुनकरों के बुनें गमछे से लोगों का सम्मान किया। हर राज्य की ढाई आखर आयोजन समिति ने अपने क्षेत्र के बुनकरों से मुलाकात की और उनसे ही यात्रा के लिए गमछे बनवाए। यह यात्रा हमें सच्चाई से रूबरू कराई कि बुनकरों की क्या स्थिति है। हम पूर्वी सिंहभूम में बड़ाजुड़ी, दबांकी गए जहां पहले हाथ से बुनाई होती थी अब वहाँ आर्थिक और अन्य कारणों से हथकरघा सूत और बुनकरों की प्रतीक्षा में शांत पड़े हैं। अभी सिर्फ जानुमडीह में हथकरघा से बुनाई हो रही है वो भी सिर्फ कपड़ा नहीं बना रहे बल्कि एक विशेष घास और सूता मिलाकर चटाई जैसे परदे, टेबल मैट या अन्य। इस सीमित जानकारी में अगर कोई अन्य जानकारी भी हो जो मुझे पता नहीं तो आप अपडेट कर सकते हैं।

बड़ाजुड़ी में हाथ से बनाने वाले गमछे के बारे में पता करते हुए घाटशिला IPTA के अध्यक्ष गणेश मुर्मू
बड़ाजुड़ी में उपस्थित बुनकर और सिलाई करने वाले साथियों के साथ घाटशिला और जमशेदपुर के साथी

श्रम के प्रतीक गमछे की जब बात आई तो कई दुकानों से गमछे लिए पर कुछ दिनों बाद रणेन्द्र जी ने इसकी व्यवस्था करने का विश्वास दिया और हमें बंदी उरांव जो कि उरांव समुदाय से आते हैं, उन्होंने यात्रा के लिए गमछे बनाकर दिए यानि उरांव समुदाय से संथाली समुदाय तक इस श्रम के प्रतीक गमछे ने यात्रा की। हर राज्य में विशेष डिज़ाइन किया गमछा असल में अपने-अपने क्षेत्र के श्रम और प्रेम का आदान-प्रदान का माध्यम बना, यह हमारी यात्रा की ऐसी कड़ी है जिसने बहुत से लोगों को साथ चलने की प्रेरणा दी।

वो समय जब ढाई आखर प्रेम के सोशल मीडिया ने काम करना शुरू किया था और हमें वेदा राकेश, मनोज बाजपेयी, बाबिल खान, गाँधीवादी बाबू भाई ठक्कर, अनुराग कश्यप, राज बब्बर, अनामिका हक्सर, तुषार गांधी, राजेन्द्र गुप्ता,प्रोबीर गुहा, स्वानन्द किरकिरे, रघुबीर यादव, तिग्मांशु धुलिया, राकेश वेदा, हर्षमन्दर और सुखदेव सिरसा जैसी कई सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तियों ने अपना संदेश दिया जिसकी व्यापकता और असर ने हर उम्र के लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में हमारी मदद की। मुझे याद आ रही है जमशेदपुर की वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि बोस की और उनके द्वारा फोन में आए संदेश की कि हमें यह गमछा कैसे मिलेगा। इस संदेश में गमछे के साथ सहयोग करने और साथ चलने की बात छिपी थी जो यहाँ की शुरुआती दौर की तैयारी के हौसले में शामिल हुआ।

जमशेदपुर में समाज की बेहतरी के लिए की जाने वाले किसी भी शुरुआत के प्रति अंजलि दी हमेशा साथ रहती हैं, मुझे याद है जब हम लोगों ने मिलकर मई में बच्चों की रंग-कार्यशाला की थी और उसके समापन की सूचना उन्हें भेजी जिसमें बच्चों की सांस्कृतिक प्रस्तुति ट्राइबल कल्चर सेंटर, सोनारी में होने वाली थी तो उसमें बच्चों से मिलने और उनकी प्रस्तुतियों को देखने की उनकी अधीरता ने उन्हें इस आयोजन में बहुत अच्छा स्वास्थ्य नहीं होने पर भी शामिल कराया जो हम सभी के लिए खुशी और सम्मान की बात थी। ढाई आखर प्रेम यात्रा के लिए उनसे मिलने के लिए हमारे साथ शामिल हुए थे जलेस के अशोक शुभदर्शी, तापस चट्टराज, इप्टा और प्रलेस के अहमद बद्र, कॉमरेड शशि कुमार और संथाली थियेटर संस्था गोमहेड़ के साथी रामचन्द्र मार्डी। उन्होंने यात्रा के लिए जो वीडियो संदेश हमें दिया वो हमारे लिए अनमोल है, अंजलि दीदी जैसी शख़्सियत को हमारा प्रेम भरा अभिवादन।

आज कुछ और ख़ास साथियों का ज़िक्र करेंगे जिनके बगैर यात्रा उस तरह से नहीं हो पाती जैसी कि हमने की। उनके बारे में लिखने से अपने आप को रोककर रखा हुआ था कि कहीं जल्दबाजी में लिखने में कुछ कसर न रह जाए हालांकि गुंजाइश अभी भी बरकरार है बहरहाल इन गुंजाइशों को कहीं न कहीं पूरा करने की कोशिश हमेशा रहेगी।

सांस्कृतिक यात्रा का पहला पाठ यह रहा कि हम किस तरह के सांस्कृतिक रास्तों से गुज़र रहे हैं इसका ध्यान रखने की आवश्यकता थी और संयोग से हमारे यात्रा रूट में घाटशिला से जमशेदपुर के बीच चुने गए रास्ते संथाली बहुल गांवों से गुजरने वाले थे। जिस तरह से विविधता से भरा हिंदुस्तान है उस तरह की विविधता को हम अपनी दोस्तियों ,साथ और काम में शामिल नहीं कर पा रहे यह स्वीकार्य भी ज़रूरी है। अपने शहर जमशेदपुर से मात्र 15 किलोमीटर की दूरी के स्थानीय लोगों के बारे में कितना कम जानते हैं यह एक सवाल भी पूरी यात्रा में और अब भी क़ाबिज़ है। बहरहाल इस सवाल को हल करने में हमारे साथी बनीं सुनीता मुर्मू (जिनके बारे में आपने पहली कड़ी में पढ़ा) और अगले रामचन्द्र मार्डी और उर्मिला हाँसदा। इस अंक में राम और उर्मिला के साथ कुछ अन्य लोगों की कुछ यादों को साझा करूंगी जिनसे हम यात्रा की तैयारी की शुरुआत कर पाए।

रामचन्द्र मार्डी अपनी मां और सहयात्री हीरा के साथ

रामचंद्र मार्डी युवा संथाली थियेटर करने वाला ऊर्जावान साथी है जिसकी संस्था का नाम है गोमहेड़,राम में कुदरती क्राफ्ट और डिज़ाइन करने का हुनर हासिल है। इसे अलग-अलग जगहों में आवश्यकता के हिसाब से निखारने में विश्वास रखते हुए वो अपनी पहचान बना रहे हैं। किसी संकुचित मानसिकता से परे संस्कृतिकर्म को जीने वाला राम आदिवासी समाज और शहरी समाज के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश में लगा हुआ है। यह कोशिश ही उसे ख़ास बनाती है। राम से मुलाकात कैसे हुई इसके लिए साथी मो. निज़ाम का शुक्रिया कहना चाहूँगी जिनके माध्यम से राम से परिचय हुआ और धीरे-धीरे यह संवाद काम करने और विचार करने के स्तर पर पहुंचा।

जब यात्रा के संदर्भ में उससे बात की थी तो राम, उर्मिला का सकारात्मक और उम्मीद भरा स्वर आश्वस्त किया था। संथाली समाज के अलावा अन्य आदिवासियों की ख़ासियत होती है कि वे अपने कहे पर कायम रहते हैं, हमें इस सीख को जीवन भर अभ्यास करने की आवश्यकता है क्योंकि कई बार हम तुच्छ जोड़-तोड़ के लिए अपनी कही बात पर कायम नहीं रहते जो हमारी विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाती है और हमारे व्यक्तित्व को कमज़ोर भी। रामचन्द्र और उर्मिला की सहमति और साथ चलने के वादे ने विश्वास का ऐसा मंत्र हम सभी को दिया है जो ढाई आखर यात्रा का बहुत बड़ा हासिल है।

जब वे दोनों यात्रा के मर्म को समझे उसके बाद अपने जान-पहचान से जुड़े तमाम लोगों से मिलवाने के लिए साथ ले जाना और संथाली संस्कृति को लेकर लगातार बात कर हमें समृद्ध करना असल में ढाई आखर प्रेम यात्रा की तैयारी से लेकर पूरी यात्रा तक विस्तारित है। टोला या गाँव में संथालियों की सामाजिक व्यवस्था के बारे में पहली बार जाना और उसके अनुसार तैयारी करने की कोशिश की। पराणिक, मांझी बाबा, परगना मांझी, देस परगना ये सारे पद धारण करने वाले सामाजिक आचार-व्यवहार का वो हिस्सा हैं जिन्हें नजर-अंदाज़ कर आप कभी भी गाँव के लोगों से जुड़ नहीं सकते। विश्वास की यह डोर संथाली गांवों की ताकत है। हर गाँव के मांझी से मिलने पर उस गाँव की बहुत सी नई जानकारी मिलीं। यहाँ परगना मांझी होरिपदो मुर्मू और मांझी बाबा युवराज टुडू का ज़िक्र करना चाहूँगी जो बहुत सरल, सहज व्यक्तित्व लगे। वे गंभीरता से अपने समुदायों के विश्वास, परंपरा, त्योहार और जीवन मूल्यों को बताए जिसके आधार पर एक छोटा सा आलेख वेबसाइट पर पूर्व-प्रकाशित है।

परगना मांझी होरिपदो दा द्वारा बुलाई गई सभा में उपस्थित अतिथि जो अपने क्षेत्र में सामाजिक महत्व रखते हैं

परगना मांझी होरिपदो मुर्मू से पहली मुलाकात मुझे अच्छे से याद है, डोमजुड़ी गाँव में अकेले ही पहुंची थी और किसी गाँव वाले से रुककर बात कर रही थी, थोड़ी बात होते ही उसने कहा कि आपको परगना मांझी से मिलना चाहिए, वे आपको ज़्यादा अच्छे से जानकारी दे पाएंगे। किसी समुदाय के प्रति जिज्ञासा ज़ाहिर करने पर उसे शांत करने की ऐसी तत्परता स्मरणीय है। परगना मांझी होरिपदो मुर्मू ने ढाई आखर प्रेम यात्रा के बारे में ध्यान से लगभग 15-20 मिनट सुना और सिर्फ हाँ कहा। मेरे बारे में ज़्यादा कुछ जानें बिना अपने समुदाय की एक बैठक में आमंत्रित किया कि आप आकर देखिए कि संथाली संस्कृति क्या है। वहाँ रामचन्द्र के साथ जाकर बहुत कुछ सीखने और जानने मिला। संथाली समुदाय में स्वागत की परंपरा सांगीतिक होती है। यहाँ भी अतिथियों को नृत्य करते, माँदल बजाते आयोजन स्थल तक ले गए और उसके बाद लोटे में पानी और झुककर स्त्रियों और पुरुषों का अभिवादन सदैव याद रह गया।

रामचन्द्र का ओढ़ना-बिछाना थियेटर है, वह अभी प्रदर्शन कला में एम.ए. की पढ़ाई कर रहे हैं, साथ में संथाली थियेटर करने में भी संलग्न है। अपनी आजीविका के अलावा भी बच्चों और युवाओं के प्रति उनका अनुराग सीखने लायक है। जब मौका लगता है अपने आसपास के बच्चों को आदिवासी वाद्ययंत्र सिखाने, नृत्य या नाटक के लिए समय देने में उत्साहित रहते हैं। उनके बारे में यह बात रोचक है कि उन्हें एन.एस.डी. में दाखिला नहीं मिला पर गेस्ट फैकल्टी के रूप में उन्हें बुलाया जाता है। आज जब थियेटर का स्वरूप कॉर्पोरेट और सरकारी प्रोजेक्ट में सीमित हो रहा है और कई लोककलाएं और लोक-नाट्य के प्रदर्शन भी सीमित हो रहे हैं जिसके पीछे कहीं न कहीं कला का बाज़ारीकरण जिम्मेदार है। आजीविका के लिए सरकारी प्रोजेक्ट के तहत नुक्कड़ करके एक समय ऐसा आता है कि वह थियेटरकर्मी की पहचान के साथ ऐसे जुड़ जाती है कि वह छटपटा कर रह जाते हैं इस बेचैनी को हर थियेटर करने वाले को ज़िंदा रखना ज़रूरी है जिसके उपाय उन्हें स्वयं के स्तर पर, स्थानीय स्तर पर किए जाने की आवश्यकता है।

यात्रा की तैयारी के दौरान ही बानाम वादक संगीत नाटक अकादमी पुरस्कृत दुर्गा प्रसाद मुर्मू से मुलाकात ने इसे स्पष्ट किया जो राष्ट्रीय स्तर की पहचान के होने के बावजूद अपने क्षेत्र को छोड़ने और कुछ ज़्यादा हासिल करने से बढ़कर अपने आसपास के आदिवासियों तक अपनी संस्कृति और कला को प्रसारित-प्रचारित करने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं। उपयोग के लिए जितनी ज़रूरत है वही इस्तेमाल करना चाहिए इस आदिवासी दर्शन को जीते दुर्गा दादा हम सभी के लिए एक ऐसे जीते-जागते मॉडल हैं जिन्हें अपने आसपास के बच्चों, किशोरों और युवाओं की चिंता है उनकी चिंता और उनका ज़िम्मेदार व्यक्तित्व हम सबके लिए अनुकरणीय है, सच ही है कि हम-आप अपनी जड़ों से दूर न हों और जीवन मूल्यों को जीते प्रेम पल्लवित-पुष्पित करें।

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