कलाओं से मेहनत के ताल्लुकात बड़े पुराने हैं। शरीर से मशक्कत करते हुए अनायास जो मुद्राएँ बन जाती हैं, या जो आवाजें फूटती हैं; वही नृत्य और गीत बन जाते हैं। नाव खेते हुए जब नाविक धार के उलट अपने बाजुओं पर जोर लगाता है तो “हइया हो हइया” का गीत अपने आप ही फूट पड़ता है। उसके अंग-संचालन में नृत्य-मुद्रा होती है। वही मुद्रा, लोच और लय भारी पत्थर को धकेलते हुए मजदूरों की देह में होती है और गीत भी वही होता है –
“जोर लगाकर हइया
और थोड़ा हइया
मिलकर बोलो हइया”
लय, ताल, गीत, संगीत सब कुछ सहजता से निकलने वाली चीजें हैं। कुदरती हैं। नाव खेते हुए मछुआरे, चाय बागान में काम करते मजदूर, पहाड़ी चढ़ाव पर राजाओं-सामंतों की पालकी ढोने वाले कहार या चरखे की खटर-खटर पर काम करने वाले बुनकरों के गीतों को जब सलिल चौधरी से लेकर सचिन देव बर्मन और भूपेन हजारिका अपना हल्का -सा स्पर्श दे देते हैं तो वह जादुई कला के रूप में सामने आती है। इन्हें बार-बार सुनकर भी जी नहीं अघाता है।
कबीर के दोहों में जो लय है, वह चरखे की संगत बगैर मुमकिन नहीं है। एक इंसान से दूसरे इंसान के रिश्तों में जो ताना-बाना गुंथा हुआ होता है, उसमें प्रेम की महक और रंगों की चटख काम की संगति के बगैर खिलकर नहीं उभर सकती। कपड़ा बुनते-बुनते कबीर गाते भी रहे होंगे। ऊँचे और ओजपूर्ण सुरों में। मोहब्बत के दुश्मनों से उस जमाने में टकराने का माद्दा ऐसे ही नहीं आया होगा।
कबीर का चरखा गाँधी को विरसे में मिला। गाँधी ने सूत भी काता और नफरतियों की धुनाई भी की- प्रेम के साथ। कलाकारों और लिखने-पढ़ने वालों से जैसे रिश्ते गाँधी के रहे, वैसे दुनिया में किसी राजनेता के न रहे होंगे। आज के जमाने के सियासतदानों का तो जिक्र न ही करें तो बेहतर। यह गाँधी का प्रेम ही था जो उन्हें हर तबके के लोगों से जोड़ता था। प्रेम के उनके संदेसे में डूबकर कलकत्ता की गौहर जान एक कंसर्ट कर उनके लिए आंदोलन का चंदा जुटाती हैं और काशी में विद्याधरी बाई ‘काशी तवायफ संघ’ बनाकर उनके संदेश को विस्तार देती हैं। गाँधी के प्रेम में भी यह ताकत श्रम के संबल से ही उपजती है। काम करते हुए कहने वालों की इज्जत दूनी होती है। काम के बगैर कहने वाले बकबकिया कहलाते हैं।
अब हम जिस दौर में आ गए हैं वहाँ गीत सुनने के लिए रिमोट का बटन दबाने में भी बड़ी मशक्कत का सामना करना पड़ रहा है। अब ‘अलेक्सा’ आ गया है जो किसी गुलाम की तरह कहने भर से डिवाइस को ऑन कर देता है और अपने नाजुक हाथों को जेहमत नहीं उठानी पड़ती है। देह की निष्क्रियता धीरे-धीरे दिमाग में आती है और फिर कुछ नीचे उतरकर दिलों में भर जाती है। ऐसे जाहिल और काहिल दिल और दिमागों से हम कौन-सा गीत रच लेंगे? रचा भी तो वह मशीनी होगा। चाहें तो आजमा कर देख लें- ‘चैट जीपीटी” गीत और कविताएँ भी लिखता है। इन्हें पढ़कर आपको दीवार में सिर दे मारने में बड़ी सुविधा हो जाएगी!
लुब्बे-लुबाब यह कि मोटर बोट या बुलडोजर चलाने वाला खेवनहार डीजल इंजिन के शोर में ‘हइया हो हइया’ नहीं गा सकता। गीत सुनना है तो उन लोगों को तरजीह देनी होगी जो अपने हाथों से कुछ निहायत बुनियादी और जरूरी कामों को अंजाम देने में जुटे हुए हैं। वे बुनकर भी हैं, कुम्हार भी हैं, मोची भी हैं, बढई भी और लोहार भी। किसान और मजदूर भी। यह मशीन के बरक्स हाथ से किये जाने वाले श्रम को फिर से रेखांकित करने का दौर है। यह एक नया दौर है जो दिलीप कुमार की ‘नया दौर’ से बहुत आगे और विकराल रूप में हैं। यह मोटरगाड़ी को तांगे से हराने की एक नई जिद है।
गाँधी के चरखों पर जाले लग रहे हैं। इन्हें झाड़कर फिर से चलाने की जरूरत है। ‘इप्टा’ की प्रस्तावित पद-यात्रा, प्रेम-यात्रा, ‘गमछा-यात्रा’ -‘ढाई आखर प्रेम’ का संदेश यही है। थोड़ा लिखा, बहुत समझें।