- दिनेश चौधरी
‘इप्टा’ के जत्थे अगले कुछ दिनों में देशव्यापी पदयात्रा पर निकल रहे हैं। मकसद लोगों से संवाद करना है। बातचीत होगी तो कुछ ‘स्मृति-चिह्न’ भी तो देना होगा। यह ‘गमछे’ के रूप में होगा। यह सिर्फ एक कपड़े का टुकड़ा नहीं होगा। यह हमारी आजादी की लड़ाई के दौरान उस मोर्चे की याद दिलाने के लिए है जो गाँधी जी ने श्रम करने वालों के स्वावलम्बन के लिए लड़ी थी। यह ग्राम-स्वराज की उनकी सोच के सबसे करीब था। गाँधी ने नमक की तरह खादी को भी आम लोगों की बुनियादी जरूरतों के रूप में शुमार किया था। खादी का विचार उनके जेहन में दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई के दौरान ही कुलबुला रहा था, हालांकि इसे उन्होंने अपने कार्यक्रम में बाद में शामिल किया। गाँधी ने कबीर के श्रम औऱ प्रेम के प्रति समर्पण की महत्ता को बहुत पहले ही रेखांकित कर लिया था।
इस ऐतिहासिक यात्रा को कैनवास में दर्ज करने की कलात्मक साझेदारी की महत्वपूर्ण भूमिका अवधेश निभा रहे हैं। वे गमछा और गमछे की अवधारणा को कई तरह से, कई रूपों में, कई रंगों में पेंट कर रहे हैं। इंसान की मोहब्बत, उसकी मेहनत और खुद इंसान; ये सब कुदरत के जितने करीब होते हैं, वे उतने ही सहज लगते हैं।
अवधेश बाजपेयी के पास दुनिया को देखने-बूझने की नज़र वही है जो कबीर और परसाई की अक्खड़ परंपरा पर यकीन रखने वालों के यहाँ होती आई है। इन निगाहों से वे जो कुछ देखते हैं, वह उनके चित्रों में उभरकर सामने आता है। यही वजह है कि अवधेश ने पिछले दिनों परसाई को लेकर जो चित्र गढ़े, वे पूरे मुल्क में सराहे गये। परसाई को लेकर उनके कैलेंडर को राजकमल प्रकाशन ने छापा।
यहाँ लगी तस्वीरें इस सिलसिले की शुरुआत हैं। दूसरे चित्र में कबीर को धागों की कल्पना से रचा गया है। इसमें सफेद कैनवास मे काला रंग लगाया गया है, फिर पतले लोहे की कील से, काले रंग को हटाते हुए, खरोंचते हुए, चित्र को अंतिम रूप दिया गया है। हालांकि इस काम के लिए तेज गति की जरूरत होती है।