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हमें थोड़ा आदिवासी होना होगा

28 सितंबर, 2023 को भगत सिंह के जन्मदिन पर राजस्थान के अलवर से शुरू हुई ‘ढाई आखर प्रेम यात्रा’ को करने के मकसद में ढेर-सी बुनियादी बातें शामिल हैं जिनके अभ्यास से हम कहीं दूर होते जा रहे हैं। प्रेम करना दुष्कर कार्य हो चला है। सीखने की प्रक्रिया में ठहराव आ गया है। मनुष्यता में डूबी दीये की बाती भी मद्धिम पड़ रही है। हम विस्तारित से संकुचित सोच के दायरे में कैद होते जा रहे हैं, आत्मकेंद्रित होते चले जा रहे हैं। यह हमारी आदिम सभ्यता के विकास का ऐसा दौर है जहां इंसान की अहमियत नहीं रह गई है बल्कि वो सौदे का, बाज़ार का हिस्सा बन चुका है। ऐसी कई परिस्थितियों से हम जूझ रहे हैं जिसके लिए लोगों के पास चलकर जाना अपने आप में कष्टकर कार्य ज़रूर है पर यह कहीं हमें सरलता, सादगी और प्रेम के मूल्यों से आप्लावित करेगा, तो कहीं संस्कृति के अनछुए दृश्यों को उजागर करेगा। लोगों से मिलना, संवाद करना हमें तरल बनाएगा, नदी-सा प्रवाह देगा और जीवन में कृत्रिम ठहराव से मुक्त करेगा।

मानव इतिहास में यायावरी का अपना मुकाम है जिसके माध्यम से हमने जीवन और दुनिया के जाने कितने नए आयाम देखे, जाने और समझे हैं। जब यह वाक्य आप पढ़ रहे होंगे तो कई यायावरों के नाम आपके मस्तिष्क में कौंध रहे होंगे। बहरहाल ढाई आखर प्रेम यात्रा पर वापिस आते हैं और कुछ अनुभव आपसे साझा करते हैं।

झारखंड पड़ाव की तैयारी हम साथियों ने दो हिस्से में की है। मउभण्डार से गालूडीह तक की यात्रा का रास्ता तय करने में घाटशिला, गालूडीह, लुआगोड़ा के साथियों – कॉमरेड दुलाल, जात्रा लिखने वाले सुपरिचित डी डी लोहड़ा, गणेश मुर्मू जो जनजातीय कला-संस्कृति के साथ ओलचिकी सिखाने का काम भी करते हैं, युवा लेखक शेखर मल्लिक, ऊर्जावान ज्योति मल्लिक, कॉमरेड ओम और कई स्थानीय साथियों – ने मिलकर गांवों की यात्रा की, लोगों को इस यात्रा के बारे में बताया।

मुर्गाघुट्टू अखड़ा, जहां ओलचिकी भी सिखाई-जाती है

गालूडीह जमशेदपुर -कोलकाता हाइवे से जुड़ा कस्बा है, जहां आदिवासियों के साथ बांग्ला भाषी और अन्य समुदाय के लोग रहते हैं। हमारी यात्रा गालूडीह से निकलकर स्वर्णरेखा नदी पार करेगी, गालूडीह बैराज का यह इलाका लगभग 4 किलोमीटर का है जो बहुत ही सुंदर है। बैराज के इस इलाके में मात्र एक छोटा-सा गाँव बसा है और वो है दिगड़ी। बैराज पार करते ही राखा आ जाएगा जो राखा कॉपर माइंस के नाम से जाना जाता है। नदी पार करते ही हम माइंस के क्षेत्र में प्रवेश कर जाएंगे। आज़ादी के बाद इस खदान को हिंदुस्तान कॉपर माइंस के नाम से जाना जाता है, यहाँ केंदाडीह नाम की एक और खदान है। मानव विकास में धातुओं का अपना महत्व रहा है पर इसकी वजह से पर्यावरण और खदान के आसपास के सामाजिक तानेबाने पर पड़े गंभीर असर को नजर-अंदाज़ नहीं किया जा सकता, जिसकी परिणति रही हैं जन-आंदोलन जो कभी हक़ की आवाज़ बन पाए और कभी रसूख के दम पर दबा दिए गए। राखा से निकल माटीगोड़ा होते जादूगोड़ा चौक से हम भाटिन गाँव की तरफ बढ़ेंगे। 13 दिसंबर, 2023 को यात्रा के विराम स्थल साकची बिरसा चौक से लगभग 34 km के इस पूरे रास्ते में हरियाली के साथ सरल, सहज ग्रामीण जीवन शैली मन मोह लेगी। हमने कितनी ज़रूरतें अपने लिए पैदा की हैं और करते चले जा रहे हैं इसकी तुलना यहाँ से गुजरते हुए आप निश्चित ही करेंगे।

ढाई आखर प्रेम, झारखंड पड़ाव में हम स्वर्णरेखा नदी के दोनों पार ही चलेंगे। पिसका रांची से निकली स्वर्णरेखा/सुबर्णरेखा नदी अपने नाम के अनुरूप तटीय क्षेत्रों में सोने के कण पाए जाने के लिए प्रसिद्ध हुई। यह रांची, सराइकेला, पूर्वी सिंहभूम होते ओडिशा और बंगाल को छूते बंगाल की खाड़ी में गिरती है। सुबर्णरेखा नदी के आसपास रहने वाले लोगों की यह जीवनदायिनी है पर खदान और औद्योगिकीकरण के कारण यह प्रदूषित भी बहुत हुई है जिसका असर इस पर निर्भर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। यहां स्वर्णरेखा नाम से ही बनी जानेमाने फिल्मकार ऋत्विक घटक की फिल्म को याद किया जाना समीचीन होगा।

घाटशिला से जमशेदपुर की इस यात्रा में हम लगभग 60 किमी की दूरी तय करेंगे जिसमें लगभग 23-24 गांवों से गुज़रेंगे। हमारी कोशिश है कि हम इन गाँव में संवाद बनाएं। जीवन-संस्कृति के साथ दुनिया को देखने का उनका नज़रिया भी शहरी लोगों को मिलेगा। इस यात्रा के माध्यम से हम संथाली संस्कृति के बारे में जान पा रहे हैं जिसमें कुदरत से जुड़ी हर जीवन देने वाली चीज को अहमियत दी गई है। जब हम किसी संथाली आदिवासी के घर जाते हैं तो कांसे के लोटे में पानी भरकर आपके सामने अभिवादन के लिए रखा जाता है और एक विशेष शैली में नमस्कार किया जाता है। अतिथि द्वारा उस लोटे से थोड़ा पानी धरती पर गिरा बचे पानी को आसपास की वनस्पति में वापिस डाल देते हैं। इस अंदाज़ से आप ज़रूर प्रभावित होंगे क्योंकि बिन पानी सब सून की कहावत और ज़रूरत से हम सभी वाकिफ़ हैं। हर गाँव के पूजा स्थल को ‘जाहेरथान’ कहा जाता है जहां साल वृक्ष की पूजा की जाती है। साल वृक्ष भी तीन तरह का होता है- सखी सारजोम, सरी सारजोम और बोंगा सारजोम। बोंगा सारजोम लता के जैसे होता है। जैसे हिन्दू संस्कृति में आम पत्तियों का शुभ काम में प्रयोग किया जाता है बिल्कुल वैसे सारजोम यानि साल के पत्ते हर काम में संथाली आदिवासियों द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।

अखड़ा

हर गाँव में सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए और सभा-गोष्ठियों के लिए अखड़ा रहता है इस सार्वजनिक स्थल के प्रति लोगों की श्रद्धा होती है। हमारी यात्रा में भी जिस गाँव में पड़ाव रहेगा, उसमें ज्यादातर जगहों में अखड़ा में लोग एकत्र होंगे। यह सब शहरी सभ्यता के जीने वाले लोगों के लिए नया होगा और बहुत से सवाल भी आएंगे पर इनके जीवन की सरलता ने इन्हें इनकी सुंदर सामाजिक संस्कृति से बांध कर रखा है। मुनाफे की संस्कृति से दूर ये ज़रूरत के हिसाब से जीने के अभ्यास में ढले हैं। इस बात को जसिंता केरकेट्टा की कविता ‘परवाह’ के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता है –

|| परवाह ||

माँ
एक बोझा लकड़ी के लिए
क्यों दिन भर जंगल छानती,
पहाड़ लाँघती,
देर शाम घर लौटती हो?

माँ कहती है :
जंगल छानती,
पहाड़ लाँघती,
दिन भर भटकती हूँ
सिर्फ़ सूखी लकड़ियों के लिए।
कहीं काट न दूँ कोई ज़िंदा पेड़!


यह दर्शन हर आदिवासी जीता है और इसी से धरती बची हुई है। गांवों में घूमने के दौरान 2-3 लोगों को यह कहते सुना कि कभी किसी भी आदिवासी क्षेत्र में आपने प्राकृतिक आपदा सुनी है ? सोचने पर लगा कि यह सच्चाई है। वे जिस धीरज और मनोयोग से प्रकृति को सहेजते, दुलारते, पूजते हैं वो अपने आप में एक मिसाल है।

दीपावली के दौरान झारखंड में संथाली समुदाय सोहराय मनाता है जो दीवाली की तरह पाँच दिन का पर्व है, पर इसके मनाने के पीछे का दर्शन महत्वपूर्ण है। दीवाली के दिन ये अपनी गायों-बैलों को सजाकर इनकी पूजा करते हैं और आदर प्रकट करते हैं कि इनकी वजह से ही खेती-किसानी का काम हो रहा है। इसके विस्तार में न जाते यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि इस दौरान गांवों में घूमना सुखद आश्चर्य से भर देता है और वो है सोहराय चित्रों से सजी इनके घरों की बाहरी दीवारें जो कि देश-विदेश में सुपरिचित और प्रसिद्ध हैं। इसके बाद आसपास के गांवों में छोटे-बड़े सांस्कृतिक मेले का जुटान भी देखने मिलता है जिसमें स्थानीय सांस्कृतिक दलों की प्रस्तुतियों के लिए दर्शकों की कमी नहीं होती।

इस संवाद के जरिए इस क्षेत्र की कुछ किवदन्ती भी साझा कर रही हूँ, यात्रा के दौरान जब सांस्कृतिक पदयात्री इसके बारे में गाँव के लोगों से पूछेंगे तो हो सकता है कुछ नई जानकारी भी हासिल हो।

जादूगोड़ा से निकलकर भाटिन होते हुए झरिया गाँव पहुंचेंगे और इससे आगे राजदोहा है। इन दोनों गाँवों से जुड़ी ऐसी मान्यता है कि हर उत्सव में भेष बदलकर आराबुरु शामिल होते हैं। सोहराय के बाद राँगा पहाड़ में आराबुरु देवता भेष बदल गए और गाना गाते, नृत्य करते हुए उपस्थित थे जिन्हें देख झरिया गाँव के पुरुषों को ईर्ष्या हुई। उन्हें भगाया-मारा तो आराबुरु उन्हें कहते हैं तुम लोग अगर इस उत्सव में आओगे तो कुत्ते छोड़ूँगा जिसे संथाली में कहा जाता है गुतरूत सेता यानि शेर जैसा कुत्ता। इस किवदन्ती को झरिया में रहने वाले लोग अभी भी मनाते हैं इसलिए वे कभी भी राजदोहा के रांगा पहाड़/लाल पहाड़ में नहीं चढ़ते और कोई भी उत्सव झरिया के लोग 15 दिन बाद मनाते हैं। जैसे कार्तिक अमावस्या में सोहराय मनाया जाता है तो झरिया वाले कार्तिक पूर्णिमा में इसे मनाते हैं। इसी पहाड़ में रोहिणी नक्षत्र के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार को गांववासी टमाक लेकर पहाड़ पर चढ़ते हैं और बुरबोंगा की जाती है, बुरु यानि पहाड़ और बोंगा यानि पूजा।

इसी तरह ‘सेंदरा’ है, जिसे पशु शिकार से जोड़कर बताया जाता है जबकि इसका अर्थ होता है खोजना। इनका मानना है कि जब टमाक जम के रात में बजाया जाता है तो आसपास के सभी जानवर आवाज़ सुनकर दूर भाग जाते हैं इसके बावजूद यदि कोई पशु यदाकदा सामने आता है तो उसे ही पकड़ते हैं। रात भर वहाँ नृत्य-गान चलता है इसके साथ ही युवा और किशोरों को यौन स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान की कक्षा भी ली जाती है। अक्सर ऐसा होता है कि वे खाली हाथ ही लौटते हैं और सुबह पहाड़ की तलहटी से उतरकर जो रस्म होती है उसे सूतनटांडी कहा जाता है। पहाड़ गए पुरुषों जिन्हें दिशुआ कहते हैं। उनके साथ गाँव की सभी स्त्रियाँ भी शामिल होती हैं। मन्नत मांगना हर समुदाय के लोग करते हैं तो आदिवासी समुदाय भी इससे अछूता नहीं है, वे इस रस्म में मन्नत मानने का काम भी करते हैं।

ऐसे ही एक और मान्यता है कि अगर किसी की शादी-ब्याह श्राद्ध होना है तो गाँव देवता सामान देते हैं। वैसे ही किसी गाँव के बसने की प्रक्रिया को ‘तेंगेन’ कहते हैं इसके बारे में भी रोचक और लोकज्ञान से जुड़ी बात दिखाई देती है। जब किसी क्षेत्र में बसने की बात आती है तो उस जगह में एक मुर्गा और पानी भर के रखा जाता है, ऐसी मान्यता है कि दूसरे दिन यदि दोनों सुरक्षित हैं तो उस जगह में गाँव बसाया जाता है, साथ ही जो गाँव की स्थापना करते हैं वो गाँव के मांझी बाबा होंगे और यह वंश दर वंश कायम रहता है। यदि मांझी की मृत्यु होती है तो उनकी पत्नी को यह दर्ज़ा हासिल होता है। इनकी सामाजिक संरचना में आपसी आक्रोश नहीं दिखता है। व्यवहार में भी ये शांत और सरल लोग होते हैं। गाँव की किसी भी समस्या के लिए ये बैठकर मांझी बाबा को बताते हैं और उनके निर्णय पर विश्वास करते हैं। शादी में भी लड़की-लड़के का प्रतिनिधित्व मांझी करते हैं, गाँव में बहू बनकर आई लड़की होपोनऐरा यानि गाँव की बेटी कहलाती है।

आदिवासी समुदाय में अन्य धर्मों की तरह कोई धर्मगुरु नहीं होता है पर प्रकृति में अवतरण का विश्वास आदिपुरुष पितचू हाड़ाम (आदिपिता) और पिलचू बूड़ी (आदि माँ ) हैं, जैसे कि आदम -हव्वा और अन्य। गाँव की सामाजिक व्यवस्था के लिए पंच होते हैं जिनमें शामिल होते हैं मांझी नाइके (पूजा करने, कराने वाले), पराणिक (मध्यस्थ), जोग मांझी, गोढ़ेत भोदरान (भद्र बुद्धिजीवी जो बूढ़े पुरूधूल (सफेद बाल वाले) शामिल होते हैं। सामाजिक व्यवस्था के साथ सामूहिकता पर विश्वास वो मूल स्वभाव है जिसे हमें सीखने, समझने की आवश्यकता है। अपने हर त्यौहार जो बुनियादी रूप से प्रकृति पर्व होते हैं उनमें सामूहिक गान, वादन और नृत्य इनकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देता है, सामूहिकता के इस भाव को अगर हम ग्रहण कर लें तो आदिवासी, प्रकृतिवासी होने की तरफ आगे बढ़ेंगे। इस ढाई आखर यात्रा में यही कोशिश रहेगी कि हम अपने जीवन में आदिवासियत को सँजोएं और जीने के अभ्यास में शामिल करें।

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